Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 81.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पूर्विकायाः क्षेत्रसंख्यायाः एकेन प्रदेशेनैकाकाशप्रदेशातिवर्तितद्गतिपरिणामावच्छिन्नसमयपूर्विकाया
कालसंख्यायाः ऐकन प्रदेशेन पद्विवर्तिजघन्यवर्णादिभावावबोधपूर्विकाया भावसंख्यायाः प्रविभाग–
करणात् प्रविभक्ता संख्याया अपीति।। ८०।।
एयरसवण्णगंधं दोफासं सद्दकारणमसद्दं।
खंधंतरिदं दव्वं परमाणु
तं वियाणाहि।। ८१।।
एकरसवर्णगंधं द्विस्पर्श शब्दकारणमशब्दम्।
स्कंधांतरितं द्रव्यं परमाणुं तं विजानिहि।। ८१।।
परमाणुद्रव्ये गुणपर्यायवृत्तिप्ररूपणमेतत्।
सर्वत्रापि परमाणौ रसवर्णगंधस्पर्शाः सहभुवो गुणाः। ते च क्रमप्रवृत्तैस्तत्र स्वपर्यायैर्वर्तन्ते। तथा
हि– पञ्चानां रसपर्यायाणामन्यतमेनैकेनैकदा रसो वर्तते।
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गाथा ८१
अन्वयार्थः– [तं परमाणुं] वह परमाणु [एकरसवर्णगंध] एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक
गंधवाला तथा [द्विस्पर्शे] दो स्पर्शवाला है, [शब्दकारणम्] शब्दका कारण है, [अशब्दम्] अशब्द
है और [स्कंधांतरितं] स्कन्धके भीतर हो तथापि [द्रव्यं] [परिपूर्ण स्वतंत्र] द्रव्य है ऐसा
[विजानीहि] जानो।
टीकाः– यह, परमाणुद्रव्यमें गुण–पर्याय वर्तनेका [गुण और पर्याय होनेका] कथन है।
सर्वत्र परमाणुमें रस–वर्ण–गंध–स्पर्श सहभावी गुण होते है; और वे गुण उसमें क्रमवर्ती निज
पर्यायों सहित वर्तते हैं। वह इस प्रकारः– पाँच रसपर्यायोमेंसे एक समय कोई एक [रसपर्याय]
सहित रस वर्तता है; पाँच वर्णपर्यायोंमेंसे एक समय किसी एक [वर्णपर्याय] सहित वर्ण वर्तता है ;
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एक ज वरण–रस–गंध ने बे स्पर्शयुत परमाणु छे,
ते शब्दहेतु, अशब्द छे, ने स्कंधमां पण द्रव्य छे। ८१।