कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
सीनाविनाभूतसहायमात्रत्वात्कारणभूतः। स्वास्तित्वमात्रनिर्वृत्तत्वात् स्वयमकार्य इति।। ८४।।
त्ह जीवपुग्गलोणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।। ८५।।
त्था जीवपुद्गलानां धर्मद्रव्यं विजानीहि।। ८५।।
----------------------------------------------------------------------------- तथापि स्वरूपसे च्युत नहीं होता इसलिये नित्य है; गतिक्रियापरिणतको [गतिक्रियारूपसे परिणमित होनेमें जीव–पुद्गलोंको] १उदासीन २अविनाभावी सहायमात्र होनेसे [गतिक्रियापरिणतको] कारणभूत है; अपने अस्तित्वमात्रसे निष्पन्न होनेके कारण स्वयं अकार्य है [अर्थात् स्वयंसिद्ध होनेके कारण किसी अन्यसे उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिये किसी अन्य कारणके कार्यरूप नहीं है]।। ८४।।
अन्वयार्थः– [यथा] जिस प्रकार[लोके] जगतमें [उदकं] पानी [मत्स्यानां] मछलियोंको [गमनानुग्रहकरं भवति] गमनमें अनुग्रह करता है, [तथा] उसी प्रकार [धर्मद्रव्यं] धर्मद्रव्य [जीवपुद्गलानां] जीव–पुद्गलोंको गमनमें अनुग्रह करता है [–निमित्तभूत होता है] ऐसा [विजानीहि] जानो। -------------------------------------------------------------------------- १। जिस प्रकार सिद्धभगवान, उदासीन होने पर भी, सिद्धगुणोंके अनुरागरूपसे परिणमत भव्य जीवोंको
गतिरूप परिणमित जीव–पुद्गलोंको गतिका सहकारी कारण है।
२। यदि कोई एक, किसी दूसरेके बिना न हो, तो पहलेको दूसरेका अविनाभावी कहा जाता है। यहाँ धर्मद्रव्यको
न हो तो वहाँ धर्मद्रव्य उन्हें सहायमात्ररूप भी नहीं है; जीव–पुद्गल स्वयं गतिक्रियारूपसे परिणमित होते हों
तभी धर्मद्रव्य उन्हेंे उदासीन सहायमात्ररूप [निमित्तमात्ररूप] है, अन्यथा नहीं।
त्यम धर्म पण अनुग्रह करे जीव–पुद्गलोने गमनमां। ८५।