Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 86.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
धर्मस्य गतिहेतुत्वे द्रष्टांतोऽयम्।
य्थोदकं स्वयमगच्छदगमयच्च स्वयमेव गच्छतां मत्स्यानामुदासीनाविनाभूतसहाय–
कारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति, तथा धर्मोऽपि स्वयमगच्छन् अगमयंश्च
स्वयमेव गच्छतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमुनगृह्णाति इति।।८५।।
जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु
पुढवीव।। ८६।।
यथा भवति धर्मद्रव्यं तथा तज्जानीहि द्रव्यमधर्माख्यम्।
स्थितिक्रियायुक्तानां कारणभूतं तु पृथिवीव।। ८६।।
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टीकाः– यह, धर्मके गतिहेतुत्वका द्रष्टान्त है।
जिस प्रकार पानी स्वयं गमन न करता हुआ और [परको] गमन न कराता हुआ, स्वयमेव
गमन करती हुई मछलियोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे गमनमें अनुग्रह करता
है, उसी प्रकार धर्म [धर्मास्तिकाय] भी स्वयं गमन न करता हुआ ऐर [परको] गमन न कराता
हुआ, स्वयमेव गमन करते हुए जीव–पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे
गमनमें
अनुग्रह करता है।। ८५।।
गाथा ८६
अन्वयार्थः– [यथा] जिस प्रकार [धर्मद्रव्यं भवति] धर्मद्रव्य है [तथा] उसी प्रकार
[अधर्माख्यम् द्रव्यम्] अधर्म नामका द्रव्य भी [जानीहि] जानो; [तत् तु] परन्तु वह
[गतिक्रियायुक्तको कारणभूत होनेके बदले] [स्थितिक्रियायुक्तानाम्] स्थितिक्रियायुक्तको [पृथिवी
इव] पृथ्वीकी भाँति [कारणभूतम्] कारणभूत है [अर्थात् स्थितिक्रियापरिणत जीव–पुद्गलोंको
निमित्तभूत है]।
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गमनमें अनुग्रह करना अर्थात् गमनमें उदासीन अविनाभावी सहायरूप [निमित्तरूप] कारणमात्र होना।
ज्यम धर्मनामक द्रव्य तेम अधर्मनामक द्रव्य छे;
पण द्रव्य आ छे पृथ्वी माफक हेतु थितिपरिणमितने। ८६।