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धर्मस्य गतिहेतुत्वे द्रष्टांतोऽयम्।
य्थोदकं स्वयमगच्छदगमयच्च स्वयमेव गच्छतां मत्स्यानामुदासीनाविनाभूतसहाय– कारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति, तथा धर्मोऽपि स्वयमगच्छन् अगमयंश्च स्वयमेव गच्छतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमुनगृह्णाति इति।।८५।।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव।। ८६।।
स्थितिक्रियायुक्तानां कारणभूतं तु पृथिवीव।। ८६।।
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टीकाः– यह, धर्मके गतिहेतुत्वका द्रष्टान्त है।
जिस प्रकार पानी स्वयं गमन न करता हुआ और [परको] गमन न कराता हुआ, स्वयमेव गमन करती हुई मछलियोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे गमनमें अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्म [धर्मास्तिकाय] भी स्वयं गमन न करता हुआ ऐर [परको] गमन न कराता हुआ, स्वयमेव गमन करते हुए जीव–पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे गमनमें अनुग्रह करता है।। ८५।।
अन्वयार्थः– [यथा] जिस प्रकार [धर्मद्रव्यं भवति] धर्मद्रव्य है [तथा] उसी प्रकार [अधर्माख्यम् द्रव्यम्] अधर्म नामका द्रव्य भी [जानीहि] जानो; [तत् तु] परन्तु वह [गतिक्रियायुक्तको कारणभूत होनेके बदले] [स्थितिक्रियायुक्तानाम्] स्थितिक्रियायुक्तको [पृथिवी इव] पृथ्वीकी भाँति [कारणभूतम्] कारणभूत है [अर्थात् स्थितिक्रियापरिणत जीव–पुद्गलोंको निमित्तभूत है]।
-------------------------------------------------------------------------- गमनमें अनुग्रह करना अर्थात् गमनमें उदासीन अविनाभावी सहायरूप [निमित्तरूप] कारणमात्र होना।
पण द्रव्य आ छे पृथ्वी माफक हेतु थितिपरिणमितने। ८६।