Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 87.

< Previous Page   Next Page >


Page 137 of 264
PDF/HTML Page 166 of 293

 

background image
कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१३७
अधर्मस्वरूपाख्यानमेतत्।
यथा धर्मः प्रज्ञापितस्तथाधर्मोपि प्रज्ञापनीयः। अयं तु विशेषः। स गतिक्रियायुक्ता–
नामुदकवत्कारणभूत; एषः पुनः स्थितिक्रियायुक्तानां पृथिवीवत्कारणभूतः। यथा पृथिवी स्वयं पूर्वमेव
तिष्ठंती परमस्थापयंती च स्वयेव तिष्ठतामश्वादीना मुदासीना–विनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन
स्थितिमनुगृह्णाति तथाऽधर्माऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां
जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति।।८६।।
जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य।। ८७।।
जातमलोकलोकं ययोः सद्भावतश्च गमनस्थिती।
द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च।। ८७।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, अधर्मके स्वरूपका कथन है।
जिस प्रकार धर्मका प्रज्ञापन किया गया, उसी प्रकार अधर्मका भी प्रज्ञापन करने योग्य है।
परन्तु यह [निम्नोक्तानुसार] अन्तर हैः वह [–धर्मास्तिकाय] गतिक्रियायुक्तको पानीकी भाँति
कारणभूत है और यह [अधर्मास्तिकाय] स्थितिक्रियायुक्तको पृथ्वीकी भाँति कारणभूत है। जिस प्रकार
पृथ्वी स्वयं पहलेसे ही स्थितिरूप [–स्थिर] वर्तती हुई तथा परको स्थिति [–स्थिरता] नहीं
कराती हुई, स्वयमेव स्थितिरूपसे परिणमित होते हुए अश्वादिकको उदासीन अविनाभावी सहायरूप
कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह करती है, उसी प्रकार अधर्म [अधर्मास्तिकाय] भी स्वयं पहलेसे
ही स्थितिरूपसे वर्तता हुआ और परको स्थिति नहीं कराता हुआ, स्वयमेव स्थितिरूप परिणमित
होते हुए जीव–पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह
करता है।। ८६।।
गाथा ८७
अन्वयार्थः– [गमनस्थिती] [जीव–पुद्गलकी] गति–स्थिति [च] तथा [अलोकलोकं]
अलोक और लोकका विभाग, [ययोः सद्भावतः] उन दो द्रव्योंके सद्भावसे [जातम्] होता है। [च]
और [द्वौ अपि] वे दोनों [विभक्तौ] विभक्त, [अविभक्तौ] अविभक्त [च] और [लोकमात्रौ]
लोकप्रमाण [मतौ] कहे गये हैं।
--------------------------------------------------------------------------
धर्माधरम होवाथी लोक–अलोक ने स्थितिगति बने;
ते उभय भिन्न–अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे। ८७।