यथा धर्मः प्रज्ञापितस्तथाधर्मोपि प्रज्ञापनीयः। अयं तु विशेषः। स गतिक्रियायुक्ता–
तिष्ठंती परमस्थापयंती च स्वयेव तिष्ठतामश्वादीना मुदासीना–विनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन
स्थितिमनुगृह्णाति तथाऽधर्माऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां
जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति।।८६।।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य।। ८७।।
द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च।। ८७।।
कारणभूत है और यह [अधर्मास्तिकाय] स्थितिक्रियायुक्तको पृथ्वीकी भाँति कारणभूत है। जिस प्रकार
पृथ्वी स्वयं पहलेसे ही स्थितिरूप [–स्थिर] वर्तती हुई तथा परको स्थिति [–स्थिरता] नहीं
कराती हुई, स्वयमेव स्थितिरूपसे परिणमित होते हुए अश्वादिकको उदासीन अविनाभावी सहायरूप
कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह करती है, उसी प्रकार अधर्म [अधर्मास्तिकाय] भी स्वयं पहलेसे
ही स्थितिरूपसे वर्तता हुआ और परको स्थिति नहीं कराता हुआ, स्वयमेव स्थितिरूप परिणमित
होते हुए जीव–पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह
करता है।। ८६।।
और [द्वौ अपि] वे दोनों [विभक्तौ] विभक्त, [अविभक्तौ] अविभक्त [च] और [लोकमात्रौ]
लोकप्रमाण [मतौ] कहे गये हैं।
ते उभय भिन्न–अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे। ८७।