तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मो न भवेताम्, तदा
तयोर्निरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत। ततो न लोकालोकविभागः सिध्येत।
धर्माधर्मयोस्तु जीवपुद्गलयोर्गतितत्पूर्वस्थित्योर्बहिरङ्गहेतुत्वेन सद्भावेऽभ्युपगम्यमाने लोकालोकविभागो
जायत इति। किञ्च धर्माधर्मो द्वावपि परस्परं
र्जीवपुद्गलयोर्गतिस्थित्युपग्रहकरणाल्लोकमात्राविति।। ८७।।
वहाँ, जीव और पुद्गल स्वरससे ही [स्वभावसे ही] गतिपरिणामको तथा गतिपूर्वक
स्थितिपरिणामको प्राप्त होते हैं। यदि गतिपरिणाम अथवा गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका स्वयं अनुभव
करनेवाले उन जीव–पुद्गलको बहिरंग हेतु धर्म और अधर्म न हो, तो जीव–पुद्गलके
निवारा जा सकता है? [किसीसे नहीं निवारा जा सकता।] इसलिये लोक और अलोकका विभाग
सिद्ध नहीं होता। परन्तु यदि जीव–पुद्गलकी गतिके और गतिपूर्वक स्थितिके बहिरंग हेतुओंंके
रूपमें धर्म और अधर्मका सद्भाव स्वीकार किया जाये तो लोक और अलोकका विभाग [सिद्ध]
होता है । [इसलिये धर्म और अधर्म विद्यमान है।] और [उनके सम्बन्धमें विशेष विवरण यह है
कि], धर्म और अधर्म दोनों परस्पर पृथग्भूत अस्तित्वसे निष्पन्न होनेसे विभक्त [भिन्न] हैं;
एकक्षेत्रावगाही होनेसे अविभक्त [अभिन्न] हैं; समस्त लोकमें विद्यमान जीव –पुद्गलोंको गतिस्थितिमें
निष्क्रियरूपसे अनुग्रह करते हैं इसलिये [–निमित्तरूप होते हैं इसलिये] लोकप्रमाण हैं।। ८७।।