कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
यदि खल्वाकाशमवगाहिनामवगाहहेतुरिव गतिस्थितिमतां गतिस्थितिहेतुरपि स्यात्, तदा सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणता भगवंतः सिद्धा बहिरङ्गांतरङ्गसाधनसामग्रयां सत्यामपि कृतस्तत्राकाशे तिष्ठंति इति।। ९२।।
तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि त्ति।। ९३।।
तस्माद्गमनस्थानमाकाशे जानीहि नास्तीति।। ९३।।
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गति–स्थितिहेतु भी हो, तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगतिसे परिणत सिद्धभगवन्त, बहिरंग–अंतरंग साधनरूप सामग्री होने पर भी क्यों [–किस कारण] उसमें–आकाशमें–स्थिर हों? ९२।।
लोकके उपर स्थिति [प्रज्ञप्तम्] कही है, [तस्मात्] इसलिये [गमनस्थानम् आकाशे न अस्ति] गति–स्थिति आकाशमें नहीं होती [अर्थात् गतिस्थितिहेतुत्व आकाशमें नहीं है] [इति जानीहि] ऐसा जानो।
टीकाः– [गतिपक्ष सम्बन्धी कथन करनेके पश्चात्] यह, स्थितिपक्ष सम्बन्धी कथन है।
जिससे सिद्धभगवन्त गमन करके लोकके उपर स्थिर होते हैं [अर्थात् लोकके उपर गतिपूर्वक स्थिति करते हैं], उससे गतिस्थितिहेतुत्व आकाशमें नहीं है ऐसा निश्चय करना; लोक और अलोकका विभाग करनेवाले धर्म तथा अधर्मको ही गति तथा स्थितिके हेतु मानना।। ९३।। -------------------------------------------------------------------------- अवगाह=लीन होना; मज्जित होना; अवकाश पाना।
ते कारणे जाणो–गतिस्थिति आभमां होती नथी। ९३।