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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि।
उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठंति किध तत्थ।। ९२।।
आकाशमवकाशं गमनस्थितिकारणाभ्यां ददाति यदि।
ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः तिष्ठन्ति कथं तत्र।। ९२।।
आकाशस्यावकाशैकहेतोर्गतिस्थितिहेतुत्वशङ्कायां दोषोपन्यासोऽयम्।
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अनन्य ही हैं; आकाश तो अनन्त होनेके कारण लोकसे अनन्य तथा अन्य है।। ९१।।
गाथा ९२
अन्वयार्थः– [यदि आकाशम्] यदि आकाश [गमनस्थितिकारणाभ्याम्] गति–स्थितिके कारण
सहित [अवकाशं ददाति] अवकाश देता हो [अर्थात् यदि आकाश अवकाशहेतु भी हो और गति–
स्थितिहेतु भी हो] तो [ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः] ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध [तत्र] उसमें [आकाशमें]
[कथम्] क्यों [तिष्ठन्ति] स्थिर हों? [आगे गमन क्यों न करें?]
टीकाः– जो मात्र अवकाशका ही हेतु है ऐसा जो आकाश उसमें गतिस्थितिहेतुत्व [भी]
होनेकी शंका की जाये तो दोष आता है उसका यह कथन है।
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यहाँ यद्यपि सामान्यरूपसे पदार्थोंका लोकसे अनन्यपना कहा है। तथापि निश्चयसे अमूर्तपना,
केवज्ञानपना,सहजपरमानन्दपना, नित्यनिरंजनपना इत्यादि लक्षणों द्वारा जीवोंको ईतर द्रव्योंसे अन्यपना है
और अपने–अपने लक्षणों द्वारा ईतर द्रव्योंका जीवोंसे भिन्नपना है ऐसा समझना।
अवकाशदायक आभ गति–थितिहेतुता पण जो धरे,
तो ऊर्ध्वगतिपरधान सिद्धो केम तेमां स्थिति लहे? ९२।