१४४
उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठंति किध तत्थ।। ९२।।
ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः तिष्ठन्ति कथं तत्र।। ९२।।
आकाशस्यावकाशैकहेतोर्गतिस्थितिहेतुत्वशङ्कायां दोषोपन्यासोऽयम्। -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [यदि आकाशम्] यदि आकाश [गमनस्थितिकारणाभ्याम्] गति–स्थितिके कारण सहित [अवकाशं ददाति] अवकाश देता हो [अर्थात् यदि आकाश अवकाशहेतु भी हो और गति– स्थितिहेतु भी हो] तो [ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः] ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध [तत्र] उसमें [आकाशमें] [कथम्] क्यों [तिष्ठन्ति] स्थिर हों? [आगे गमन क्यों न करें?]
टीकाः– जो मात्र अवकाशका ही हेतु है ऐसा जो आकाश उसमें गतिस्थितिहेतुत्व [भी] होनेकी शंका की जाये तो दोष आता है उसका यह कथन है। -------------------------------------------------------------------------- यहाँ यद्यपि सामान्यरूपसे पदार्थोंका लोकसे अनन्यपना कहा है। तथापि निश्चयसे अमूर्तपना,
और अपने–अपने लक्षणों द्वारा ईतर द्रव्योंका जीवोंसे भिन्नपना है ऐसा समझना।
तो ऊर्ध्वगतिपरधान सिद्धो केम तेमां स्थिति लहे? ९२।