Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 91.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१४३
आकाशस्वरूपाख्यानमेतत्।
षड्द्रव्यात्मके लोके सर्वेषां शेषद्रव्याणां यत्समस्तावकाशनिमित्तं विशुद्धक्षेत्ररूपं
तदाकाशमिति।। ९०।।
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा।
तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं।। ९१।।
जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मोंं च लोकतोऽनन्ये।
ततोऽनन्यदन्यदाकाशमंतव्यतिरिक्तम्।। ९१।।
लोकाद्बहिराकाशसूचनेयम्।
जीवादीनि शेषद्रव्याण्यवधृतपरिमाणत्वाल्लोकादनन्यान्येव। आकाशं त्वनंतत्वाल्लोकाद–
नन्यदन्यच्चेति।। ९१।।
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टीकाः– यह, आकाशके स्वरूपका कथन है।
षट्द्रव्यात्मक लोकमें शेष सभी द्रव्योंको जो परिपूर्ण अवकाशका निमित्त
है, वह आकाश है– जो कि [आकाश] विशुद्धक्षेत्ररूप है।। ९०।।
गाथा ९१
अन्वयार्थः– [जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मौ च] जीव, पुद्गलकाय, धर्म , अधर्म [तथा काल]
[लोकतः अनन्ये] लोकसे अनन्य है; [अंतव्यतिरिक्तम् आकाशम्] अन्त रहित ऐसा आकाश [ततः]
उससे [लोकसे] [अनन्यत् अन्यत्] अनन्य तथा अन्य है।
टीकाः– यह, लोकके बाहर [भी] आकाश होनेकी सूचना है।
जीवादि शेष द्रव्य [–आकाशके अतिरिक्त द्रव्य] मर्यादित परिमाणवाले होनेके कारण लोकसे
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१। निश्चयनयसे नित्यनिरंजन–ज्ञानमय परमानन्द जिनका एक लक्षण है ऐसे अनन्तानन्त जीव, उनसे अनन्तगुने
पुद्गल, असंख्य कालाणु और असंख्यप्रदेशी धर्म तथा अधर्म– यह सभी द्रव्य विशिष्ट अवगाहगुण द्वारा
लोकाकाशमें–यद्यपि वह लोकाकाश मात्र असंख्यप्रदेशी ही है तथापि अवकाश प्राप्त करते हैं।