Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 98.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अचेतनः कालः अचेतनो धर्मः अचेतनोऽधर्मः अचेतनः पुद्गलः, चेतनो जीव एवैक इति।। ९७।।
जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा।
पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु।। ९८।।
जीवाः पुद्गलकायाः सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः।
पुद्गलकरणा जीवाः स्कंधा खलु कालकरणास्तु।। ९८।।
अत्र सक्रियनिष्क्रियत्वमुक्तम्।
प्रदेशांतरप्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्यायः क्रिया। तत्र सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः जीवाः,
सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः पुद्गलाः। निष्क्रियमाकाशं, निष्क्रियो धर्मः, निष्क्रियोऽधर्मः, निष्क्रियः
कालः। जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्ग– साधनं कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुद्गला इति ते पुद्गलकरणाः।
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पररूपमें प्रवेश द्वारा [–मूर्तद्रव्यके संयोगकी अपेक्षासे] मूर्त भी है, धर्म अमूर्त है, अधर्म
अमूर्त हैे; पुद्गल ही एक मूर्त है। आकाश अचेतन है, काल अचेतन है, धर्म अचेतन है, अधर्म
अचेतन है, पुद्गल अचेतन है; जीव ही एक चेतन है।। ९७।।
गाथा ९८
अन्वयार्थः– [सह जीवाः पुद्गलकायाः] बाह्य करण सहित स्थित जीव और पुद्गल [सक्रियाः
भवन्ति] सक्रिय है, [न च शेषाः] शेष द्रव्य सक्रिय नहीं हैं [निष्क्रिय हैं]; [जीवाः] जीव
[पुद्गलकरणाः] पुद्गलकरणवाले [–जिन्हें सक्रियपनेमें पुद्गल बहिरंग साधन हो ऐसे] हैं[स्कंधाः
खलु कालकरणाः तु] और स्कन्ध अर्थात् पुद्गल तो कालकरणवाले [–जिन्हें सक्रियपनेमें काल
बहिरंग साधन हो ऐसे] हैं।
टीकाः– यहाँ [द्रव्योंंका] सक्रिय–निष्क्रियपना कहा गया है।
प्रदेशान्तरप्राप्तिका हेतु [–अन्य प्रदेशकी प्राप्तिका कारण] ऐसी जो परिस्पंदरूप पर्याय, वह
क्रिया है। वहाँ, बहिरंग साधनके साथ रहनेवाले जीव सक्रिय हैं; बहिरंग साधनके साथ रहनेवाले
पुद्गल सक्रिय हैं। आकाश निष्क्रिय है; धर्म निष्क्रिय है; अधर्म निष्क्रिय है ; काल निष्क्रिय है।
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१। जीव निश्चयसे अमूर्त–अखण्ड–एकप्रतिभासमय होनेसे अमूर्त है, रागादिरहित सहजानन्द जिसका एक स्वभाव
है ऐसे आत्मतत्त्वकी भावनारहित जीव द्वारा उपार्जित जो मूर्त कर्म उसके संसर्ग द्वारा व्यवहारसे मूर्त भी है।
जीव–पुद्गलो सहभूत छे सक्रिय, निष्क्रिय शेष छे;
छे काल पुद्गलने करण, पुद्गल करण छे जीवने। ९८।