कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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१५१
तदभावान्निःक्रियत्वं सिद्धानाम्। पुद्गलानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं परिणामनिर्वर्तकः काल इति ते
कालकरणाः न च कार्मादीनामिव कालस्याभावः। ततो न सिद्धानामिव निष्क्रियत्वं पुद्गलानामिति।।
९८।।
जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवेहि होंति ते मुत्ता।
सेसं हवदि अमूत्तं चित्तं उभयं समादियदि।। ९९।।
ये खलु इन्द्रियग्राह्या विषया जीवैर्भवन्ति ते मूर्तोः।
शेषं भवत्यमूर्तं चितमुभयं समाददाति।। ९९।।
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जीवोंको सक्रियपनेका बहिरंग साधन कर्म–नोकर्मके संचयरूप पुद्गल है; इसलिये जीव
पुद्गलकरणवाले हैं। उसके अभावके कारण [–पुद्गलकरणके अभावके कारण] सिद्धोंको
निष्क्रियपना है [अर्थात् सिद्धोंको कर्म–नोकर्मके संचयरूप पुद्गलोंका अभाव होनेसे वे निष्क्रिय हैं।]
पुद्गलोंको सक्रियपनेका बहिरंग साधन परिणामनिष्पादक काल है; इसलिये पुद्गल कालकरणवाले
हैं।
कर्मादिककी भाँति [अर्थात् जिस प्रकार कर्म–नोकर्मरूप पुद्गलोंका अभाव होता है उस
प्रकार] कालका अभाव नहीं होता; इसलिये सिद्धोंकी भाँति [अर्थात् जिस प्रकार सिद्धोंको
निष्क्रियपना होता है उस प्रकार] पुद्गलोंको निष्क्रियपना नहीं होता।। ९८।।
गाथा ९९
अन्वयार्थः– [ये खलु] जो पदार्थ [जीवैः इन्द्रियग्राह्याः विषयाः] जीवोंको इन्द्रियग्राह्य विषय है
[ते मूर्ताः भवन्ति] वे मूर्त हैं और [शेषं] शेष पदार्थसमूह [अमूर्तं भवति] अमूर्त हैं। [चित्तम्] चित्त
[उभयं] उन दोनोंको [समाददाति] ग्रहण करता है [जानता है]।
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परिणामनिष्पादक=परिणामको उत्पन्न करनेवाला; परिणाम उत्पन्न होनेमें जो निमित्तभूत [बहिरंग साधनभूत]
हैं ऐसा।
छे जीवने जे विषय इन्द्रियग्राह्य, ते सौ मूर्त छे;
बाकी बधुंय अमूर्त छे; मन जाणतुं ते उभय ने। ९९।