Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 102.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
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नित्यक्षणिकत्वेन कालविभागख्यापनमेतत्।
यो हि द्रव्यविशेषः ‘अयं कालः, अयं कालः’ इति सदा व्यपदिश्यते स खलु स्वस्य
सद्भावमावेदयन् भवति नित्यः। यस्तु पुनरुत्पन्नमात्र एव प्रध्वंस्यते स खलु तस्यैव द्रव्यविशेषस्य
समयाख्यः पर्याय इति। स तूत्संगितक्षणभंगोऽप्युपदर्शित–स्वसंतानो
नयबलाद्रीर्धातरस्थाय्युपगीयमानो न दुष्यति; ततो न खल्वावलिकापल्योपम–सागरोपमादिव्यवहारो
विप्रतिषिध्यते। तदत्र निश्चयकालो नित्यः द्रव्यरूपत्वात्, व्यवहारकालः क्षणिकः पर्यायरूपत्वादिति।।
१०१।।
एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा।
लब्भंति दव्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं।। १०२।।
एते कालाकाशे धर्माधर्मौ च पुद्गला जीवाः।
लभंते द्रव्यसंज्ञां कालस्य तु नास्ति कायत्वम्।। १०२।।
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टीकाः– कालके ‘नित्य’ और ‘क्षणिक’ ऐसे दो विभागोंका यह कथन है।
‘यह काल है, यह काल है’ ऐसा करके जिस द्रव्यविशेषका सदैव व्यपदेश [निर्देश, कथन]
किया जाता है, वह [द्रव्यविशेष अर्थात् निश्चयकालरूप खास द्रव्य] सचमुच अपने सद्भावको प्रगट
करता हुआ नित्य है; और जो उत्पन्न होते ही नष्ट होता है, वह [व्यवहारकाल] सचमुच उसी
द्रव्यविशेषकी ‘समय’ नामक पर्याय है। वह क्षणभंगुर होने पर भी अपनी संततिको [प्रवाहको]
दर्शाता है इसलिये उसे नयके बलसे ‘दीर्घ काल तक टिकनेवाला’ कहनेमें दोष नहीं है; इसलिये
आवलिका, पल्योपम, सागरोपम इत्यादि व्यवहारका निषेध नहीं किया जाता।
इस प्रकार यहाँ ऐसा कहा है कि–निश्चयकाल द्रव्यरूप होनेसे नित्य है, व्यवहारकाल
पर्यायरूप होनेसे क्षणिक है।। १०१।।
गाथा १०२
अन्वयार्थः– [एते] यह [कालाकाशे] काल, आकाश [धर्माधर्मौर्] धर्म, अधर्म, [पुद्गलाः]
पुद्गल [च] और [जीवाः] जीव [सब] [द्रव्यसंज्ञां लभंते] ‘द्रव्य’ संज्ञाको प्राप्त करते हैं;
[कालस्य तु] परंतु कालको [कायत्वम्] कायपना [न अस्ति] नहीं है।
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आ जीव, पुद्गल, काळ, धर्म, अधर्म तेम ज नभ विषे
छे ‘द्रव्य’ संज्ञा सर्वने, कायत्व छे नहि काळने । १०२।