Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 101.

< Previous Page   Next Page >


Page 154 of 264
PDF/HTML Page 183 of 293

 

background image
१५४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
कालसंभूत इत्यभिधीयते। तत्रेदं तात्पर्यं–व्यवहारकालो जीवपुद्गलपरिणामेन निश्चीयते, निश्चय–
कालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्त्येति। तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकालः सूक्ष्मपर्यायस्य तावन्मात्रत्वात्,
नित्यो निश्चयकालः खगुणपर्यायाधारद्रव्यत्वेन सर्वदैवाविनश्वरत्वादिति।। १००।।
कालो त्ति य ववदेसो सब्भावपरुवगो हवदि णिच्चो।
उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई।। १०१।।
काल इति च व्यपदेशः सद्भावप्ररूपको भवति नित्यः।
उत्पन्नप्रध्वंस्यपरो दीर्धांतरस्थायी।। १०१।।
-----------------------------------------------------------------------------
निश्चित होता है; और निश्चयकाल जीव–पुद्गलोंके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा [अर्थात्
जीव–पुद्गलोंके परिणाम अन्य प्रकारसे नहीं बन सकते इसलिये] निश्चित होता है।
वहाँ, व्यवहारकाल क्षणभंगी है, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय मात्र उतनी ही [–क्षणमात्र जितनी ही,
समयमात्र जितनी ही] है; निश्चयकाल नित्य है, क्योंकि वह अपने गुण–पर्यायोंके आधारभूत
द्रव्यरूपसे सदैव अविनाशी है।। १००।।
गाथा १०१
अन्वयार्थः– [कालः इति च व्यपदेशः] ‘काल’ ऐसा व्यपदेश [सद्गावप्ररूपकः] सद्भावका
प्ररूपक है इसलिये [नित्यः भवति] काल [निश्चयकाल] नित्य है। [उत्पन्नध्वंसी अपरः] उत्पन्नध्वंसी
ऐसा जो दूसरा काल [अर्थात् उत्पन्न होते ही नष्ट होनेवाला जो व्यवहारकाल] वह
[दीर्धांतरस्थायी] [क्षणिक होने पर भी प्रवाहअपेक्षासे] दीर्ध स्थितिका भी [कहा जाता] है।
--------------------------------------------------------------------------
क्षणभंगी=प्रति क्षण नष्ट होनेवाला; प्रतिसमय जिसका ध्वंस होता है ऐसा; क्षणभंगुर; क्षणिक।
छे ‘काळ’ संज्ञा सत्प्ररूपक तेथी काळ सुनित्य छे;
उत्पन्नध्वंसी अन्य जे ते दीर्धस्थायी पण ठरे। १०१।