Panchastikay Sangrah (Hindi). Kaldravya ka vyakhyan Gatha: 100.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१५३
अथ कालद्रव्यव्याख्यानम्।
छालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूदो।
दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो।। १००।।
कालः परिणामभवः परिणामो द्रव्यकालसंभूतः।
द्वयोरेष स्वभावः कालः क्षणभङ्गुरो नियतः।। १००।।
व्यवहारकालस्य निश्चयकालस्य च स्वरूपाख्यानमेतत्।
त्त्र क्रमानुपाती समयाख्यः पर्यायो व्यवहारकालः, तदाधारभूतं द्रव्यं निश्चयकालः। त्त्र
व्यवहारकालो निश्चयकालपर्यायरूपोपि जीवपुद्गलानां परिणामेनावच्छिद्यमानत्वात्तत्परिणामभव
इत्युपगीयते, जीवपुद्गलानां परिणामस्तु बहिरङ्गनिमित्तभूतद्रव्यकालसद्भावे सति संभूतत्वाद्र्रव्य–
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अब कालद्रव्यका व्याख्यान है।
गाथा १००
अन्वयार्थः– [कालः परिणामभवः] काल परिणामसे उत्पन्न होता है [अर्थात् व्यवहारकाल का
माप जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा होता है]; [परिणामः द्रव्यकालसंभूतः] परिणाम द्रव्यकालसे
उत्पन्न होता है।– [द्वयोः एषः स्वभावः] यह, दोनोंका स्वभाव है। [कालः क्षणभुङ्गुरः नियतः] काल
क्षणभंगुर तथा नित्य है।
टीकाः– यह, व्यवहारकाल तथा निश्चयकालके स्वरूपका कथन है।
वहाँ, ‘समय’ नामकी जो क्रमिक पर्याय सो व्यवहारकाल है; उसके आधारभूत द्रव्य वह
निश्चयकाल है।
वहाँ, व्यवहारकाल निश्चयकालकी पर्यायरूप होने पर भी जीव–पुद्गलोंके परिणामसे मापा
जाता है – ज्ञात होता है इसलिये ‘जीव–पुद्गलोंके परिणामसे उत्पन्न होनेवाला’ कहलाता है; और
जीव–पुद्गलोंके परिणाम बहिरंग–निमित्तभूत द्रव्यकालके सद्भावमें उत्पन्न होनेके कारण ‘द्रव्यकालसे
उत्पन्न होनेवाले’ कहलाते हैं। वहाँ तात्पर्य यह है कि – व्यवहारकाल जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा
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परिणामभव छे काळ, काळपदार्थभव परिणाम छे;
–आ छे स्वभावो उभयना; क्षणभंगी ने ध्रुव काळ छे। १००।