Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 107.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

१६४

सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं।
चारित्तं समभावो विसयेसु
विरूढमग्गाणं।। १०७।।

सम्यक्त्वं श्रद्धानं भावानां तेषामधिगमो ज्ञानम्।
चारित्रं समभावो विषयेषु विरूढमार्गाणाम्।। १०७।।

सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां सूचनेयम्।

भावाः खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्थाः। तेषां मिथ्यादर्शनोदया– वादिताश्रद्धानाभावस्वभावं भावांतरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, शुद्धचैतन्यरूपात्म– -----------------------------------------------------------------------------

गाथा १०७

अन्वयार्थः– [भावानां] भावोंका [–नव पदार्थोंका] [श्रद्धानं] श्रद्धान [सम्यक्त्वं] वह सम्यक्त्व है; [तेषाम् अधिगमः] उनका अवबोध [ज्ञानम्] वह ज्ञान है; [विरूढमार्गाणाम्] [निज तत्त्वमें] जिनका मार्ग विशेष रूढ हुआ है उन्हें [विषयेषु] विषयोंके प्रति वर्तता हुआ [समभावः] समभाव [चारित्रम्] वह चारित्र है।

टीकाः– यह, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी सूचना है।

काल सहित पंचास्तिकायके भेदरूप नव पदार्थ वे वास्तवमें ‘भाव’ हैं। उन ‘भावों’ का मिथ्यादर्शनके उदयसे प्राप्त होनेवाला जो अश्रद्धान उसके अभावस्वभाववाला जो भावान्तर–श्रद्धान [अर्थात् नव पदार्थोंका श्रद्धान], वह सम्यग्दर्शन है– जो कि [सम्यग्दर्शन] शुद्धचैतन्यरूप -------------------------------------------------------------------------- १। भावान्तर = भावविशेष; खास भाव; दूसरा भाव; भिन्न भाव। [नव पदार्थोंके अश्रद्धानका अभाव जिसका स्वभाव है ऐसा भावान्तर [–नव पदार्थोंके श्रद्धानरूप भाव] वह सम्यग्दर्शन है।]

‘भावो’ तणी श्रद्धा सुदर्शन, बोध तेनो ज्ञान छे,
वधु रूढ मार्ग थतां विषयमां साम्य ते चारित्र छे। १०७।