कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।। ११०।।
ददति खलु मोहबहुलं स्पर्शं बहुका अपि ते तेषाम्।। ११०।।
पृथिवीकायिकादिपञ्चभेदोद्देशोऽयम्।
पृथिवीकायाः, अप्कायाः, तेजःकायाः, वायुकायाः, वनस्पतिकायाः इत्येते पुद्गल–परिणामा बंधवशाज्जीवानुसंश्रिताः, अवांतरजातिभेदाद्बहुका अपि स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशम–भाजां जीवानां बहिरङ्गस्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिभूताः कर्मफलचेतनाप्रधान– -----------------------------------------------------------------------------
[च] और [वनस्पतिः] वनस्पतिकाय–[कायाः] यह कायें [जीवसंश्रिताः] जीवसहित हैं। [बहुकाः अपि ते] [अवान्तर जातियोंकी अपेक्षासे] उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी [तेषाम्] उनमें रहनेवाले जीवोंको [खलु] वास्तवमें [मोहबहुलं] अत्यन्त मोहसे संयुक्त [स्पर्शं ददति] स्पर्श देती हैं [अर्थात् स्पर्शज्ञानमें निमित्त होती हैं]।
बन्धवशात् [बन्धके कारण] जीवसहित हैं। २अवान्तर जातिरूप भेद करने पर वे अनेक होने पर भी वे सभी [पुद्गलपरिणाम], स्पर्शनेन्द्रियावरणके क्षयोपशमवाले जीवोंको बहिरंग स्पर्शनेन्द्रियकी -------------------------------------------------------------------------- १। काय = शरीर। [पृथ्वीकाय आदि कायें पुद्गलपरिणाम हैं; उनका जीवके साथ बन्ध होनेकेे कारण वे
२। अवान्तर जाति = अन्तर्गत–जाति। [पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजःकाय और वायुकाय–इन चारमेंसे प्रत्येकके
भू–जल–अनल–वायु–वनस्पतिकाय जीवसहित छे;
बहु काय ते अतिमोहसंयुत स्पर्श आपे जीवने। ११०।