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अथ जीवपदार्थानां व्याख्यानं प्रपञ्चयति।
उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा।। १०९।।
उपयोगलक्षणा अपि च देहादेहप्रवीचाराः।। १०९।।
जीवस्यरूपोद्देशोऽयम्।
जीवाः हि द्विविधाः, संसारस्था अशुद्धा निर्वृत्ताः शुद्धाश्च। ते खलूभयेऽपि चेतना–स्वभावाः, चेतनापरिणामलक्षणेनोपयोगेन लक्षणीयाः। तत्र संसारस्था देहप्रवीचाराः, निर्वृत्ता अदेहप्रवीचारा इति।। १०९।। -----------------------------------------------------------------------------
अब जीवपदार्थका व्याख्यान विस्तारपूर्वक किया जाता है।
अन्वयार्थः– [जीवाः द्विविधाः] जीव दो प्रकारके हैं; [संसारस्थाः निर्वृत्ताः] संसारी और सिद्ध। [चेतनात्मकाः] वे चेतनात्मक [–चेतनास्वभाववाले] [अपि च] तथा [उपयोगलक्षणाः] उपयोगलक्षणवाले हैं। [देहादेहप्रवीचाराः] संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।
टीकाः– यह, जीवके स्वरूपका कथन है।
जीव दो प्रकारके हैंः – [१] संसारी अर्थात् अशुद्ध, और [२] सिद्ध अर्थात् शुद्ध। वे दोनों वास्तवमें चेतनास्वभाववाले हैं और चेतनापरिणामस्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होनेयोग्य [– पहिचानेजानेयोग्य] हैं। उनमें, संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।। १०९।। -------------------------------------------------------------------------- चेतनाका परिणाम सो उपयोग। वह उपयोग जीवरूपी लक्ष्यका लक्षण है।
उपयोगलक्षण उभय; एक सदेह, एक अदेह छे। १०९।