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गत्यंतरमायुरंतरंच ते प्राप्नुवन्ति। एवं क्षीणाक्षीणाभ्यामपि पुनः पुनर्नवीभूताभ्यां गतिनामायुःकर्मभ्यामनात्मस्वभावभूताभ्यामपि चिरमनुगम्यमानाः संसरंत्यात्मानमचेतयमाना जीवा इति।। ११९।।
देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभव्वा य।। १२०।।
देहविहीनाः सिद्धाः भव्याः संसारिणोऽभव्याश्च।। १२०।।
----------------------------------------------------------------------------- गति और अन्य आयुषका बीज होती है [अर्थात् लेश्या अन्य गतिनामकर्म और अन्य आयुषकर्मका कारण होती है], इसलिये उसके उचित ही अन्य गति तथा अन्य आयुष वे प्राप्त करते हैं। इस प्रकार क्षीण–अक्षीणपनेको प्राप्त होने पर भी पुनः–पुनः नवीन उत्पन्न होेवाले गतिनामकर्म और आयुषकर्म [प्रवाहरूपसे] यद्यपिे वे अनात्मस्वभावभूत हैं तथापि–चिरकाल [जीवोंके] साथ साथ रहते हैं इसलिये, आत्माको नहीं चेतनेवाले जीव संसरण करते हैं [अर्थात् आत्माका अनुभव नहीं करनेवाले जीव संसारमें परिभ्रमण करते हैं]।
भावार्थः– जीवोंको देवत्वादिकी प्राप्तिमें पौद्गलिक कर्म निमित्तभूत हैं इसलिये देवत्वादि जीवका स्वभाव नहीं है।
[पुनश्च, देव मरकर देव ही होता रहे और मनुष्य मरकर मनुष्य ही होता रहे इस मान्यताका भी यहाँ निषेध हुआ। जीवोंको अपनी लेश्याके योग्य ही गतिनामकर्म और आयुषकर्मका बन्ध होता है और इसलिये उसके योग्य ही अन्य गति–आयुष प्राप्त होती है] ।। ११९।।
अन्वयार्थः– [एते जीवनिकायाः] यह [पूर्वोक्त] जीवनिकाय [देहप्रवीचारमाश्रिताः] देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित [भणिताः] कहे गये हैं; [देहविहीनाः सिद्धाः] देहरहित ऐसे सिद्ध हैं। -------------------------------------------------------------------------- पहलेके कर्म क्षीण होते हैं और बादके अक्षीणरूपसे वर्तते हैं।
ने देहविरहित सिद्ध छे; संसारी भव्य–अभव्य छे। १२०।