Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 119.

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
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खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणामे आउसे य ते वि खलु।
पाउण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेस्सवसा।। ११९।।
क्षीणे पूर्वनिबद्धे गतिनाम्नि आयुषि च तेऽपि खलु।
प्राप्नुवन्ति चान्यां गतिमायुष्कं स्वलेश्यावशात्।। ११९।।
गत्यायुर्नामोदयनिर्वृत्तत्वाद्देवत्वादीनामनात्मस्वभावत्वोद्योतनमेतत्।
क्षीयते हि क्रमेणारब्धफलो गतिनामविशेष आयुर्विशेषश्च जीवानाम्। एवमपि तेषां
गत्यंतरस्यायुरंतरस्य च कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या भवति बीजं, ततस्तदुचितमेव
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पंचेन्द्रिय होते हैं और कतिपय एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी होते हैं।
भावार्थः– यहाँ ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिये कि चार गतिसे विलक्षण, स्वात्मोपलब्धि
जिसका लक्षण है ऐसी जो सिद्धगति उसकी भावनासे रहित जीव अथवा सिद्धसद्रश निजशुद्धात्माकी
भावनासे रहित जीव जो चतुर्गतिनामकर्म उपार्जित करते हैं उसके उदयवश वे देवादि गतियोंमें
उत्पन्न होते हैं।। ११८।।
गाथा ११९
अन्वयार्थः– [पूर्वनिबद्धे] पूर्वबद्ध [गतिनाम्नि आयुषि च] गतिनामकर्म और आयुषकर्म [क्षीणे]
क्षीण होनेसे [ते अपि] जीव [स्वलेश्यावशात्] अपनी लेश्याके वश [खलु] वास्तवमें [अन्यां गतिम्
आयुष्कं च] अन्य गति और आयुष्य [प्राप्नुवन्ति] प्राप्त करते हैं।
टीकाः– यहाँ, गतिनामकर्म और आयुषकर्मके उदयसे निष्पन्न होते हैं इसलिये देवत्वादि
अनात्मस्वभावभूत हैं [अर्थात् देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यंचत्व और नारकत्व आत्माका स्वभाव नहीं है]
ऐसा दर्शाया गया है।
जीवोंको, जिसका फल प्रारम्भ होजाता है ऐसा अमुक गतिनामकर्म और अमुक आयुषकर्म
क्रमशः क्षयको प्राप्त होता है। ऐसा होने पर भी उन्हें कषाय–अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप लेश्या अन्य
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कषाय–अनुरंजित =कषायरंजित; कषायसे रंगी हुई। [कषायसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति सो लेश्या है।]
गतिनाम ने आयुष्य पूर्वनिबद्ध ज्यां क्षय थाय छे,
त्यां अन्य गति–आयुष्य पामे जीव निजलेश्यावशे। ११९।