Panchastikay Sangrah (Hindi). Ajiv padarth ka vyakhyan Gatha: 124-125.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

१८४

अथ अजीवपदार्थव्याख्यानम्।

आगासकालपोग्गलधम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा।
तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स
चेदणदा।। १२४।।
आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणाः।
तेषामचेतनत्वं भणितं जीवस्य चेतनता।। १२४।।

आकाशादीनामेवाजीवत्वे हेतूपन्यासोऽयम्।

आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु चैतन्यविशेषरूपा जीवगुणा नो विद्यंते, आकाशादीनां तेषामचेतनत्वसामान्यत्वात्। अचेतनत्वसामान्यञ्चाकाशादीनामेव, जीवस्यैव चेतनत्वसामान्या– दिति।। १२४।।

सुहदुक्खजाणणा वा हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं।
जस्स ण विज्जदि णिच्चं
तं समणा बेंति अज्जीवं।। १२५।।

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अब अजीवपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १२४

अन्वयार्थः– [आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु] आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममें [जीवगुणाः न सन्ति] जीवके गुण नहीं है; [क्योंकि] [तेषाम् अचेतनत्वं भणितम्] उन्हें अचेतनपना कहा है, [जीवस्य चेतनता] जीवको चेतनता कही है।

टीकाः– यह, आकाशादिका ही अजीवपना दर्शानेके लिये हेतुका कथन है।

आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममें चैतन्यविशेषोंरूप जीवगुण विद्यमान नहीं है; क्योंकि उन आकाशादिको अचेतनत्वसामान्य है। और अचेतनत्वसामान्य आकाशादिको ही है, क्योंकि जीवको ही चेतनत्वसामान्य है।। १२४।। --------------------------------------------------------------------------

छे जीवगुण नहि आभ–धर्म–अधर्म–पुद्गल–काळमां;
तेमां अचेतनता कही, चेतनपणुं कह्युं जीवमां। १२४।
सुखदुःखसंचेतन, अहितनी भीति, उद्यम हित विषे
जेने कदी होतां नथी, तेने अजीव श्रमणो कहे। १२५।
सुखदुःखज्ञानं वा हितपरिकर्म चाहितभीरुत्वम्।
यस्य न विद्यते नित्यं तं श्रमणा ब्रुवन्त्यजीवम्।। १२५।।