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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अथ अजीवपदार्थव्याख्यानम्।
आगासकालपोग्गलधम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा।
तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा।। १२४।।
आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणाः।
तेषामचेतनत्वं भणितं जीवस्य चेतनता।। १२४।।
आकाशादीनामेवाजीवत्वे हेतूपन्यासोऽयम्।
आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु चैतन्यविशेषरूपा जीवगुणा नो विद्यंते, आकाशादीनां
तेषामचेतनत्वसामान्यत्वात्। अचेतनत्वसामान्यञ्चाकाशादीनामेव, जीवस्यैव चेतनत्वसामान्या–
दिति।। १२४।।
सुहदुक्खजाणणा वा हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं।
जस्स ण विज्जदि णिच्चं तं समणा बेंति अज्जीवं।। १२५।।
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अब अजीवपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १२४
अन्वयार्थः– [आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु] आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममें
[जीवगुणाः न सन्ति] जीवके गुण नहीं है; [क्योंकि] [तेषाम् अचेतनत्वं भणितम्] उन्हें
अचेतनपना कहा है, [जीवस्य चेतनता] जीवको चेतनता कही है।
टीकाः– यह, आकाशादिका ही अजीवपना दर्शानेके लिये हेतुका कथन है।
आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममें चैतन्यविशेषोंरूप जीवगुण विद्यमान नहीं है; क्योंकि
उन आकाशादिको अचेतनत्वसामान्य है। और अचेतनत्वसामान्य आकाशादिको ही है, क्योंकि जीवको
ही चेतनत्वसामान्य है।। १२४।।
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छे जीवगुण नहि आभ–धर्म–अधर्म–पुद्गल–काळमां;
तेमां अचेतनता कही, चेतनपणुं कह्युं जीवमां। १२४।
सुखदुःखसंचेतन, अहितनी भीति, उद्यम हित विषे
जेने कदी होतां नथी, तेने अजीव श्रमणो कहे। १२५।
सुखदुःखज्ञानं वा हितपरिकर्म चाहितभीरुत्वम्।
यस्य न विद्यते नित्यं तं श्रमणा ब्रुवन्त्यजीवम्।। १२५।।