कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
आकाशादीनामचेतनत्वसामान्ये पुनरनुमानमेतत्। सुखदुःखज्ञानस्य हितपरिकर्मणोऽहितभीरुत्वस्य चेति चैतन्यविशेषाणां नित्यमनुपलब्धेर– विद्यमानचैतन्यसामान्या एवाकाशादयोऽजीवा इति।। १२५।। -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [सुखदुःखज्ञानं वा] सुखदुःखका ज्ञान [हितपरिकर्म] हितका उद्यम [च] और [अहितभीरुत्वम्] अहितका भय– [यस्य नित्यं न विद्यते] यह जिसे सदैव नहीं होते, [तम्] उसे [श्रमणाः] श्रमण [अजीवम् ब्रुवन्ति] अजीव कहते हैं।
अनुपलब्धि है [अर्थात् यह चैतन्यविशेष आकाशादिको किसी काल नहीं देखे जाते], इसलिये [ऐसा निश्चित होता है कि] आकाशादि अजीवोंको चैतन्यसामान्य विद्यमान नहीं है।
भावार्थः– जिसे चेतनत्वसामान्य हो उसे चेतनत्वविशेष होना ही चाहिए। जिसे चेतनत्वविशेष न हो उसे चेतनत्वसामान्य भी नहीं होता। अब, आकाशादि पाँच द्रव्योंको सुखदुःखका संचेतन, हित के लिए प्रयत्न और अहितके लिए भीति–यह चेतनत्वविशेष कभी देखे नहीं जाते; इसलिये निश्चित होता है कि आकाशादिको चेतनत्वसामान्य भी नहीं है, अर्थात् अचेतनत्वसामान्य ही है।। १२५।। -------------------------------------------------------------------------- हित और अहितके सम्बन्धमें आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें निम्नोक्तानुसार
निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मद्रव्यको हित समझते हैं और आकुलताके उत्पादक ऐसे दुःखको तथा उसके
कारणभूत मिथ्यात्वरागादिपरिणत आत्मद्रव्यको अहित समझते हैं।