Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 126-127.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
संठाणा संघादा वण्णरसप्फासगंधसद्दा य।
पोग्गलदव्वप्पभवा होंति गुणा पज्जया य बहू।। १२६।।
अरसमरूवमगंधं
अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।। १२७।।
संस्थानानि संघाताः वर्णरसस्पर्शगंधशब्दाश्च।
पुद्गलद्रव्यप्रभवा भवन्ति गुणाः पर्यायाश्च बहवः।। १२६।।
अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्।
जानीह्यलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम्।। १२७।।
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गाथा १२६–१२७
अन्वयार्थः– [संस्थानानि] [समचतुरस्रादि] संस्थान, [संघाताः] [औदारिक शरीर सम्बन्धी]
संघात, [वर्णरसस्पर्शगंधशब्दाः च] वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द–[बहवः गुणाः पर्यायाः च] ऐसे
जो बहु गुण और पर्यायें हैं, [पुद्गलद्रव्यप्रभवाः भवन्ति] वे पुद्गलद्रव्यनिष्पन्न है।
[अरसम् अरूपम् अगंधम्] जो अरस, अरूप तथा अगन्ध है, [अव्यक्तम्] अव्यक्त है,
[अशब्दम्] अशब्द है, [अनिर्दिष्टसंस्थानम्] अनिर्दिष्टसंस्थान है [अर्थात् जिसका कोई संस्थान नहीं
कहा ऐसा है], [चेतनागुणम्] चेतनागुणवाला है और [अलिङ्गग्रहणम्] इन्द्रियोंके द्वारा अग्राह्य है,
[जीवं जानीहि] उसे जीव जानो।
टीकाः– जीव–पुद्गलके संयोगमें भी, उनके भेदके कारणभूत स्वरूपका यह कथन है [अर्थात्
जीव और पुद्गलके संयोगमें भी, जिसके द्वारा उनका भेद जाना जा सकता है ऐसे उनके भिन्न–
भिन्न स्वरूपका यह कथन है]।
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संस्थान–संधातो, वरण–रस–गंध–शब्द–स्पर्श जे,
ते बहु गुणो ने पर्ययो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे। १२६।
जे चेतनागुण, अरसरूप,
अगंधशब्द, अव्यक्त छे,
निर्दिष्ट नहि संस्थान, इंद्रियग्राह्य नहि, ते जीव छे। १२७।