कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
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जीवपुद्गलयोः संयोगेऽपि भेदनिबंधनस्वरूपाख्यानमेतत्।
यत्खलु शरीरशरीरिसंयोगे स्पर्शरसगंधवर्णगुणत्वात्सशब्दत्वात्संस्थानसङ्गातादिपर्याय–
परिणतत्वाच्च इन्द्रियग्रहणयोग्यं, तत्पुद्गलद्रव्यम्। यत्पुनरस्पर्शरसगंधवर्णगुणत्वादशब्दत्वाद–
निर्दिष्टसंस्थानत्वादव्यक्तत्वादिपर्यायैः परिणतत्वाच्च नेन्द्रियग्रहणयोग्यं, तच्चेतना–
गुणत्वात् रूपिभ्योऽरूपिभ्यश्चाजीवेभ्यो विशिष्टं जीवद्रव्यम्। एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेदः
सम्यग्ज्ञानिनां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति।। १२६–१२७।।
–इति अजीवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
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शरीर और १शरीरीके संयोगमें, [१] जो वास्तवमें स्पर्श–रस–गन्ध–वर्ण। गुणवाला होनेके
कारण, सशब्द होनेके कारण तथा संस्थान–संघातादि पर्यायोंरूपसे परिणत होनेके कारण
इन्द्रियग्रहणयोग्य है, वह पुद्गलद्रव्य हैे; और [२] जो स्पर्श–रस–गन्ध–वर्णगुण रहित होनेके
कारण, अशब्द होनेके कारण, अनिर्दिष्टसंस्थान होनेके कारण तथा २अव्यक्तत्वादि पर्यायोंरूपसे
परिणत होनेके कारण इन्द्रियग्रहणयोग्य नहीं है, वह, चेतनागुणमयपनेके कारण रूपी तथा अरूपी
अजीवोंसे ३विशिष्ट [भिन्न] ऐसा जीवद्रव्य है।
इस प्रकार यहाँ जीव और अजीवका वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानीयोंके मार्गकी प्रसिद्धिके हेतु
प्रतिपादित किया गया।
[भावार्थः– अनादि मिथ्यावासनाके कारण जीवोंको स्वयं कौन है उसका वास्तविक ज्ञान नहीं
है और अपनेको शरीरादिरूप मानते हैं। उन्हें जीवद्रव्य तथा अजीवद्रव्यका यथार्थ भेद दर्शाकर
मुक्तिका मार्ग प्राप्त करानेके हेतु यहाँ जड़ पुद्गलद्रव्यके और चेतन जीवद्रव्यके वीतरागसर्वज्ञकथित
लक्षण कहे गए। जो जीव उन लक्षणोंको जानकर, अपनेको एक स्वतःसिद्ध स्वतंत्र द्रव्यरूपसे
पहिचानकर, भेदविज्ञानी अनुभवी होता है, वह निजात्मद्रव्यमें लीन होकर मोक्षमार्गको साधकर
शाश्वत निराकुल सुखका भोक्ता होता है।] १२६–१२७।।
इस प्रकार अजीवपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
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१। शरीरी = देही; शरीरवाला [अर्थात् आत्मा]।
२। अव्यक्तत्वादि = अव्यक्तत्व आदि; अप्रकटत्व आदिे।
३। विशिष्ट = भिन्न; विलक्षण; खास प्रकारका।