कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
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अथ पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम्।
मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि।
विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो।। १३१।।
मोहो रागो द्वेषश्चित्तप्रसादः वा यस्य भावे।
विद्यते तस्य शुभो वा अशुभो वा भवति परिणामः।। १३१।।
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अब पुण्य–पापपदार्थका व्यख्यान है।
गाथा १३१
अन्वयार्थः– [यस्य भावे] जिसके भावमें [मोहः] मोह, [रागः] राग, [द्वेषः] द्वेष [वा]
अथवा [चित्तप्रसादः] चित्तप्रसन्नता [विद्यते] है, [तस्य] उसेे [शुभः वा अशुभः वा] शुभ अथवा
अशुभ [परिणामः] परिणाम [भवति] है।
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[यहा ज्ञानीके विशिष्ट पुण्यको संसारविच्छेदके कारणभूत कहा वहा ऐसा समझना कि –वास्तवमें तो
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ही संसारविच्छेदके कारणभूत हैं, परन्तु जब वह सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र अपूर्णदशामें
होता है तब उसके साथ अनिच्छितवृत्तिसे वर्तते हुए विशिष्ट पुण्यमें संसारविच्छेदके कारणपनेका आरोप किया
जाता है। वह आरोप भी वास्तविक कारणके–सम्यग्दर्शनादिके –अस्तित्वमें ही हो सकता है।]
छे राग, द्वेष, विमोह, चित्तप्रसादपरिणति जेहने,
ते जीवने शुभ वा अशुभ परिणामनो सद्भाव छे। १३१।