Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 132.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पुण्यपापयोग्यभावस्वभावाख्यापनमेतत्।
इह हि दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः। विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये
प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ। तस्यैव मंदोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः। एवमिमे यस्य भावे
भवन्ति, तस्यावश्यं भवति शुभोऽशुभो वा परिणामः। तत्र यत्र प्रशस्तरागश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः
परिणामः, यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राऽशुभ इति।। १३१।।
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स।
दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं
पत्तो।। १३२।।
शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भवति जीवस्य।
द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः।। १३२।।
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टीकाः– यह, पुण्य–पापके योग्य भावके स्वभावका [–स्वरूपका] कथन है।
यहाँ, दर्शनमोहनीयके विपाकसे जो कलुषित परिणाम वह मोह है; विचित्र [–अनेक प्रकारके]
चारित्रमोहनीयका विपाक जिसका आश्रय [–निमित्त] है ऐसी प्रीति–अप्रीति वह राग–द्वेष है; उसीके
[चारित्रमोहनीयके ही] मंद उदयसे होनेवाले जो विशुद्ध परिणाम वह
चित्तप्रसादपरिणाम [–मनकी
प्रसन्नतारूप परिणाम] है। इस प्रकार यह [मोह, राग, द्वेष अथवा चित्तप्रसाद] जिसके भावमें है,
उसे अवश्य शुभ अथवा अशुभ परिणाम है। उसमें, जहाँ प्रशस्त राग तथा चित्तप्रसाद है वहाँ शुभ
परिणाम है और जहाँ मोह, द्वेष तथा अप्रशस्त राग है वहाँ अशुभ परिणाम है।। १३१।।
गाथा १३२
अन्वयार्थः– [जीवस्य] जीवके [शुभपरिणामः] शुभ परिणाम [पुण्यम्] पुण्य हैं और [अशुभः]
अशुभ परिणाम [पापम् इति भवति] पाप हैं; [द्वयोः] उन दोनोंके द्वारा [पुद्गलमात्रः भावः]
पुद्गलमात्र भाव [कर्मत्वं प्राप्तः] कर्मपनेको प्राप्त होते हैं [अर्थात् जीवके पुण्य–पापभावके निमित्तसे
साता–असातावेदनीयादि पुद्गलमात्र परिणाम व्यवहारसे जीवका कर्म कहे जाते हैं]।
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१। प्रसाद = प्रसन्नता; विशुद्धता; उज्ज्वलता।
शुभ भाव जीवना पुण्य छे ने अशुभ भावो पाप छे;
तेना निमित्ते पौद्गलिक परिणाम कर्मपणुं लहे। १३२।