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प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत्।
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा, -----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, प्रशस्त रागके स्वरूपका कथन है।
१अर्हन्त–सिद्ध–साधुओंके प्रति भक्ति, धर्ममें–व्यवहारचारित्रके २अनुष्ठानमें– ३भावनाप्रधान चेष्टा और गुरुओंका–आचार्यादिका–रसिकभावसे ४अनुगमन, यह ‘प्रशस्त राग’ है क्योंकि उसका विषय प्रशस्त है। -------------------------------------------------------------------------- १। अर्हन्त–सिद्ध–साधुओंमें अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पाँचोंका समावेश हो जाता है क्योंकि
अनन्त चतुष्टय सहित हुए, वे अर्हन्त कहलाते हैं।
बिना वैसा ही अनुष्ठान–ऐसे निश्चयपंचाचारको तथा उसके साधक व्यवहारपंचाचारको–कि जिसकी विधि
आचारादिशास्त्रोंमें कही है उसेे–अर्थात् उभय आचारको जो स्वयं आचरते है और दूसरोंको उसका आचरण
कराते हैं, वे आचार्य हैं।
करते हैं और स्वयं भाते [–अनुभव करते ] हैं, वे उपाध्याय हैं।
निश्चय–चतुर्विध–आराधना द्वारा जो शुद्ध आत्मस्वरूपकी साधना करते हैं, वे साधु हैं।] २। अनुष्ठान = आचरण; आचरना; अमलमें लाना। ३। भावनाप्रधान चेष्टा = भावप्रधान प्रवृत्ति; शुभभावप्रधान व्यापार। ४। अनुगमन = अनुसरण; आज्ञांकितपना; अनुकूल वर्तन। [गुरुओंके प्रति रसिकभावसे (उल्लाससे, उत्साहसे)