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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अनुकम्पास्वरूपाख्यानमेतत्।
कञ्चिदुदन्यादिदुःखप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षाकुलितचित्तत्वमज्ञानिनोऽनु–कम्पा।
ज्ञानिनस्त्वधस्तनभूमिकासु विहरमाणस्य जन्मार्णवनिमग्नजगदवलोकनान्मनाग्मनःखेद इति।। १३७।।
कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज।
जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य तं बुधा बेंति।। १३८।।
क्रोधो वा यदा मानो माया लोभो वा चित्तमासाद्य।
जीवस्य करोति क्षोभं कालुष्यमिति च तं बुधा ब्रुवन्ति।। १३८।।
चित्तकलुषत्वस्वरूपाख्यानमेतत्।
क्रोधमानमायालोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम्। तेषामेव मंदोदये तस्य
प्रसादोऽकालुष्यम्। तत् कादाचित्कविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनो भवति। कषायोदयानु–
वृत्तेरसमग्रव्यावर्तितोपयोगस्यावांतरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भवतीति।। १३८।।
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अवलोकनसे [अर्थात् संसारसागरमें डुबे हुए जगतको देखनेसे] मनमें किंचित् खेद होना वह है।।
१३७।।
गाथा १३८
अन्वयार्थः– [यदा] जब [क्रोधः वा] क्रोध, [मानः] मान, [माया] माया [वा] अथवा
[लोभः] लोभ [चित्तम् आसाद्य] चित्तका आश्रय पाकर [जीवस्य] जीवको [क्षोभं करोति] क्षोभ
करते हैैं, तब [तं] उसे [बुधाः] ज्ञानी [कालुष्यम् इति च ब्रुवन्ति] ‘कलुषता’ कहते हैं।
टीकाः– यह, चित्तकी कलुषताके स्वरूपका कथन है।
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इस गाथाकी आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें इस प्रकार विवरण हैः– तीव्र तृषा, तीव्र क्षुधा, तीव्र
रोग आदिसे पीड़ित प्राणीको देखकर अज्ञानी जीव ‘किसी भी प्रकारसे मैं इसका प्रतिकार करूँ’ इस प्रकार
व्याकुल होकर अनुकम्पा करता है; ज्ञानी तो स्वात्मभावनाको प्राप्त न करता हुआ [अर्थात् निजात्माके
अनुभवकी उपलब्धि न होती हो तब], संक्लेशके परित्याग द्वारा [–अशुभ भावको छोड़कर] यथासम्भव
प्रतिकार करता है तथा उसे दुःखी देखकर विशेष संवेग और वैराग्यकी भावना करता है।
मद–क्रोध अथवा लोभ–माया चित्त–आश्रय पामीने
जीवने करे जे क्षोभ, तेने कलुषता ज्ञानी कहे। १३८।