Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२११
निवेशयति, तदास्य निष्क्रियचैतन्यरूपस्वरूपविश्रान्तस्य वाङ्मनःकायानभावयतः स्वकर्मस्व–
व्यापारयतः सकलशुभाशुभकर्मेन्धनदहनसमर्थत्वात् अग्निकल्पं परमपुरुषार्थसिद्धयुपायभूतं ध्यानं
जायते इति। तथा चोक्तम्–
‘‘अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं। लोयंतियदेवत्तं
तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति’’।। ‘‘अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा। तण्णवरि
सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणई’’।। १४६।।
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है, तब उस योगीको– जो कि अपने निष्क्रिय चैतन्यरूप स्वरूपमें विश्रान्त है, वचन–मन–कायाको
नहीं
भाता और स्वकर्मोमें व्यापार नहीं करता उसे– सकल शुभाशुभ कर्मरूप ईंधनको जलानेमें
समर्थ होनेसे अग्निसमान ऐसा, परमपुरुषार्थसिद्धिके उपायभूत ध्यान प्रगट होता है।
फिर कहा है कि –
‘अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदतं।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वृर्दि जंति।।
‘अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा।
तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणइ।।
[अर्थः– इस समय भी त्रिरत्नशुद्ध जीव [– इस काल भी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप तीन
रत्नोंसे शुद्ध ऐसे मुनि] आत्माका ध्यान करके इन्द्रपना तथा लौकान्तिक–देवपना प्राप्त करते हैं और
वहाँ से चय कर [मनुष्यभव प्राप्त करके] निर्वाणको प्राप्त करते हैं।
श्रुतिओंका अन्त नहीं है [–शास्त्रोंका पार नहीं है], काल अल्प है और हम दुर्मेध हैं;
इसलिये वही केवल सीखने योग्य है कि जो जरा–मरणका क्षय करे।]
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इन दो उद्धवत गाथाओंमेंसे पहली गाथा श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत मोक्षप्राभृतकी है।

१। भाना = चिंतवन करना; ध्याना; अनुभव करना।

२। व्यापार = प्रवृत्ति [स्वरूपविश्रान्त योगीको अपने पूर्वोपार्जित कर्मोंमें प्रवर्तन नहीं है, क्योंकि वह मोहनीयकर्मके
विपाकको अपनेसे भिन्न–अचेतन–जानता है तथा उस कर्मविपाकको अनुरूप परिणमनसे उसने उपयोगको
विमुख किया है।]

३। पुरुषार्थ = पुरुषका अर्थ; पुरुषका प्रयोजन; आत्माका प्रयोजन; आत्मप्रयोजन। [परमपुरुषार्थ अर्थात् आत्माका
परम प्रयोजन मोक्ष है और वह मोक्ष ध्यानसे सधता है, इसलिये परमपुरुषार्थकी [–मोक्षकी] सिद्धिका उपाय
ध्यान हैे।]