Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 146.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

२१०

जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो।

तस्स सुहासुहडहणो ज्ञाणमओ जायदे अगणी।। १४६।।
यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा योगपरिकर्म।
तस्य शुभाशुभदहनो ध्यानमयो जायते अग्निः।। १४६।।

ध्यानस्वरूपाभिधानमेतत्।

शुद्धस्वरूपेऽविचलितचैतन्यवृत्तिर्हि ध्यानम्। अथास्यात्मलाभविधिरभिधीयते। यदा खलु योगी दर्शनचारित्रमोहनीयविपाकं पुद्गलकर्मत्वात् कर्मसु संहृत्य, तदनुवृत्तेः व्यावृत्त्योपयोगम– मुह्यन्तमरज्यन्तमद्विषन्तं चात्यन्तशुद्ध एवात्मनि निष्कम्पं -----------------------------------------------------------------------------

इससे [–इस गाथासे] ऐसा दर्शाया कि निर्जराका मुख्य हेतु ध्यान है।। १४५।।

गाथा १४६

अन्वयार्थः– [यस्य] जिसे [मोहः रागः द्वेषः] मोह और रागद्वेष [न विद्यते] नहीं है [वा] तथा [योगपरिकर्म] योगोंका सेवन नहीं है [अर्थात् मन–वचन–कायाके प्रति उपेक्षा है], [तस्य] उसे [शुभाशुभदहनः] शुभाशुभको जलानेवाली [ध्यानमयः अग्निः] ध्यानमय अग्नि [जायते] प्रगट होती है।

टीकाः– यह, ध्यानके स्वरूपका कथन है।

शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्यपरिणति सो वास्तवमें ध्यान है। वह ध्यान प्रगट होनेकी विधि अब कही जाती है; जब वास्तवमें योगी, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका विपाक पुद्गलकर्म होनेसे उस विपाकको [अपनेसे भिन्न ऐसे अचेतन] कर्मोंमें समेटकर, तदनुसार परिणतिसे उपयोगको व्यवृत्त करके [–उस विपाकके अनुरूप परिणमनमेंसे उपयोगका निवर्तन करके], मोही, रागी और द्वेषी न होनेवाले ऐसे उस उपयोगको अत्यन्त शुद्ध आत्मामें ही निष्कम्परूपसे लीन करता ------------------------------------------------------------------------- १। यह ध्यान शुद्धभावरूप है।

नहि रागद्वेषविमोह ने नहि योगसेवन जेहने,
प्रगटे शुभाशुभ बाळनारो ध्यान–अग्नि तेहने। १४६।