Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन

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२०९

मुख्यनिर्जराकारणोपन्यासोऽयम्।

यो हि संवरेण शुभाशुभपरिणामपरमनिरोधेन युक्तः परिज्ञातवस्तुस्वरूपः परप्रयोजनेभ्यो व्यावृत्तबुद्धिः केवलं स्वप्रयोजनसाधनोद्यतमनाः आत्मानं स्वोपलभ्भेनोपलभ्य गुणगुणिनोर्वस्तु– त्वेनाभेदात्तदेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्संचेतयते स खलु नितान्तनिस्स्नेहः प्रहीण– स्नेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फटिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरजः संधुनोति एतेन निर्जरामुख्यत्वे हेतुत्वं ध्यानस्य द्योतितमिति।। १४५।। ----------------------------------------------------------------------------- वास्तवमें आत्मार्थका प्रसाधक [स्वप्रयोजनका प्रकृष्ट साधक] वर्तता हुआ, [आत्मानम् ज्ञात्वा] आत्माको जानकर [–अनुभव करके] [ज्ञानं नियतं ध्यायति] ज्ञानको निश्चलरूपसे ध्याता है, [सः] वह [कर्मरजः] कर्मरजको [संधुनोति] खिरा देता है।

टीकाः– यह, निर्जराके मुख्य कारणका कथन है।
संवरसे अर्थात् शुभाशुभ परिणामके परम निरोधसे युक्त ऐसा जो जीव, वस्तुस्वरूपको [हेय–

उपादेय तत्त्वको] बराबर जानता हुआ परप्रयोजनसे जिसकी बुद्धि व्यावृत्त हुई है और केवल स्वप्रयोजन साधनेमें जिसका मन उद्यत हुआ है ऐसा वर्तता हुआ, आत्माको स्वोपलब्धिसे उपलब्ध

करके [–अपनेको स्वानुभव द्वारा अनुभव करके], गुण–गुणीका वस्तुरूपसे अभेद होनेके कारण उसी

ज्ञानको–स्वको–स्व द्वारा अविचलपरिणतिवाला होकर संचेतता है, वह जीव वास्तवमें अत्यन्त

निःस्नेह वर्तता हुआ –जिसको स्नेहके लेपका संग प्रक्षीण हुआ है ऐसे शुद्ध स्फटिकके स्तंभकी

भाँति–पूर्वोपार्जित कर्मरजको खिरा देती है। ------------------------------------------------------------------------- १। व्यावृत्त होना = निवर्तना; निवृत्त होना; विमुख होना। २। मन = मति; बुद्धि; भाव; परिणाम। ३। उद्यत होना = तत्पर होना ; लगना; उद्यमवंत होना ; मुड़़ना; ढलना। ४। गुणी और गुणमें वस्तु–अपेक्षासे अभेद है इसलिये आत्मा कहो या ज्ञान कहो–दोनों एक ही हैं। उपर जिसका

‘आत्मा’ शब्दसे कथन किया था उसीका यहाँ ‘ज्ञान’शब्दसे कथन किया है। उस ज्ञानमें–निजात्मामें–
निजात्मा द्वारा निश्चल परिणति करके उसका संचेतन–संवेदन–अनुभवन करना सो ध्यान है।

५। निःस्नेह = स्नेह रहित; मोहरागद्वेष रहित। ६। स्नेह = तेल; चिकना पदार्थ; स्निग्धता; चिकनापन।

संवर सहित, आत्मप्रयोजननो प्रसाधक आत्मने
जाणी, सुनिश्चळ ज्ञान ध्यावे, ते करमरज निर्जरे। १४५।