कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
मुख्यनिर्जराकारणोपन्यासोऽयम्।
यो हि संवरेण शुभाशुभपरिणामपरमनिरोधेन युक्तः परिज्ञातवस्तुस्वरूपः परप्रयोजनेभ्यो व्यावृत्तबुद्धिः केवलं स्वप्रयोजनसाधनोद्यतमनाः आत्मानं स्वोपलभ्भेनोपलभ्य गुणगुणिनोर्वस्तु– त्वेनाभेदात्तदेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्संचेतयते स खलु नितान्तनिस्स्नेहः प्रहीण– स्नेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फटिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरजः संधुनोति एतेन निर्जरामुख्यत्वे हेतुत्वं ध्यानस्य द्योतितमिति।। १४५।। ----------------------------------------------------------------------------- वास्तवमें आत्मार्थका प्रसाधक [स्वप्रयोजनका प्रकृष्ट साधक] वर्तता हुआ, [आत्मानम् ज्ञात्वा] आत्माको जानकर [–अनुभव करके] [ज्ञानं नियतं ध्यायति] ज्ञानको निश्चलरूपसे ध्याता है, [सः] वह [कर्मरजः] कर्मरजको [संधुनोति] खिरा देता है।
उपादेय तत्त्वको] बराबर जानता हुआ परप्रयोजनसे जिसकी बुद्धि व्यावृत्त हुई है और केवल स्वप्रयोजन साधनेमें जिसका २मन उद्यत हुआ है ऐसा वर्तता हुआ, आत्माको स्वोपलब्धिसे उपलब्ध
करके [–अपनेको स्वानुभव द्वारा अनुभव करके], गुण–गुणीका वस्तुरूपसे अभेद होनेके कारण उसी
५निःस्नेह वर्तता हुआ –जिसको ६स्नेहके लेपका संग प्रक्षीण हुआ है ऐसे शुद्ध स्फटिकके स्तंभकी
भाँति–पूर्वोपार्जित कर्मरजको खिरा देती है। ------------------------------------------------------------------------- १। व्यावृत्त होना = निवर्तना; निवृत्त होना; विमुख होना। २। मन = मति; बुद्धि; भाव; परिणाम। ३। उद्यत होना = तत्पर होना ; लगना; उद्यमवंत होना ; मुड़़ना; ढलना। ४। गुणी और गुणमें वस्तु–अपेक्षासे अभेद है इसलिये आत्मा कहो या ज्ञान कहो–दोनों एक ही हैं। उपर जिसका
निजात्मा द्वारा निश्चल परिणति करके उसका संचेतन–संवेदन–अनुभवन करना सो ध्यान है।
५। निःस्नेह = स्नेह रहित; मोहरागद्वेष रहित। ६। स्नेह = तेल; चिकना पदार्थ; स्निग्धता; चिकनापन।
जाणी, सुनिश्चळ ज्ञान ध्यावे, ते करमरज निर्जरे। १४५।