Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 145.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

२०८

बहूनां कर्मणां निर्जरणं करोति। तदत्र कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिर्बृंहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानां द्रव्य–निर्जरेति।। १४४।।

जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो हि अप्पाणं।
मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं।। १४५।।

यः संवरेण युक्तः आत्मार्थप्रसाधको ह्यात्मानम्।
ज्ञात्वा ध्यायति नियतं ज्ञानं स संधुनोति कर्मरजः।। १४५।।

----------------------------------------------------------------------------- प्रवर्तता है, वह [पुरुष] वास्तवमें बहुत कर्मोंकी निर्जरा करता है। इसलिये यहाँ [इस गाथामें ऐसा कहा कि], कर्मके वीर्यका [–कर्मकी शक्तिका] शातन करनेमें समर्थ ऐसा जो बहिरंग और अंतरंग तपों द्वारा वृद्धिको प्राप्त शुद्धोपयोग सो भावनिर्जरा हैे और उसके प्रभावसे [–वृद्धिको प्राप्त शुद्धोपयोगके निमित्तसे] नीरस हुए ऐसे उपार्जित कर्मपुद्गलोंका एकदेश संक्षय सो द्रव्य निर्जरा है।। १४४।।

गाथा १४५

अन्वयार्थः– [संवरेण युक्तः] संवरसे युक्त ऐसा [यः] जो जीव, [आत्मार्थ– प्रसाधकः हि] ------------------------------------------------------------------------- १। शातन करना = पतला करना; हीन करना; क्षीण करना; नष्ट करना। २। वृद्धिको प्राप्त = बढ़ा हुआ; उग्र हुआ। [संवर और शुद्धोपयोगवाले जीवको जब उग्र शुद्धोपयोग होता है तब

बहुत कर्मोंकी निर्जरा होती है। शुद्धोपयोगकी उग्रता करने की विधि शुद्धात्मद्रव्यके आलम्बनकी उग्रता करना
ही है। ऐसा करनेवालेको, सहजदशामें हठ रहित जो अनशनादि सम्बन्धी भाव वर्तते हैं उनमेंं [शुभपनेरूप
अंशके साथ] उग्र–शुद्धिरूप अंश होता है, जिससे बहुत कर्मोंकी निर्जरा होती है। [मिथ्याद्रष्टिको तो
शुद्धात्मद्रव्य भासित ही नहीं हुआ हैं, इसलिये उसे संवर नहीं है, शुद्धोपयोग नहीं है, शुद्धोपयोगकी वृद्धिकी
तो बात ही कहाँ रही? इसलिये उसे, सहज दशा रहित–हठपूर्वक–अनशनादिसम्बन्धी शुभभाव कदाचित् भले
हों तथापि, मोक्षके हेतुभूत निर्जरा बिलकुल नहीं होती।]]

३। संक्षय = सम्यक् प्रकारसे क्षय।