Panchastikay Sangrah (Hindi).

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

२२०

द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमनिर्जराकारणध्यानाख्यानमेतत्।

एवमस्य खलु भावमुक्तस्य भगवतः केवलिनः स्वरूपतृप्तत्वाद्विश्रान्तस्रुखदुःखकर्म– विपाककृतविक्रियस्य प्रक्षीणावरणत्वादनन्तज्ञानदर्शनसंपूर्णशुद्धज्ञानचेतनामयत्वादतीन्द्रियत्वात् चान्यद्रव्यसंयोगवियुक्तं शुद्धस्वरूपेऽविचलितचैतन्यवृत्तिरूपत्वात्कथञ्चिद्धयानव्यपदेशार्हमात्मनः स्वरूपं पूर्वसंचितकर्मणां शक्तिशातनं पतनं वा विलोक्य निर्जराहेतुत्वेनोपवर्ण्यत इति।। १५२।। ----------------------------------------------------------------------------- अन्यद्रव्यसे असंयुक्त ऐसा [ध्यानं] ध्यान [निर्जराहेतुः जायते] निर्जराका हेतु होता है।

टीकाः– यह, द्रव्यकर्ममोक्षनके हेतुभूत ऐसी परम निर्जराके कारणभूत ध्यानका कथन है।

इस प्रकार वास्तवमें इस [–पूवोक्त] भावमुक्त [–भावमोक्षवाले] भगवान केवलीको–कि जिन्हें स्वरूपतृप्तपनेके कारण १कर्मविपाकृत सुखदुःखरूप विक्रिया अटक गई है उन्हें –आवरणके प्रक्षीणपनेके कारण, अनन्त ज्ञानदर्शनसे सम्पूर्ण शुद्धज्ञानचेतनामयपनेके कारण तथा अतीन्द्रियपनेके कारण जो अन्यद्रव्यके संयोग रहित है और शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्यवृत्तिरूप होनेके कारण जो कथंचित् ‘ध्यान’ नामके योग्य है ऐसा आत्माका स्वरूप [–आत्माकी निज दशा] पूर्वसंचित कर्मोंकी शक्तिको शातन अथवा उनका पतन देखकर निर्जराके हेतुरूपसे वर्णन किया जाता है।

भावार्थः– केवलीभगवानके आत्माकी दशा ज्ञानदर्शनावरणके क्षयवाली होनेके कारण, शुद्धज्ञानचेतनामय होनेके कारण तथा इन्द्रियव्यापारादि बहिर्द्रव्यके आलम्बन रहित होनेके कारण अन्यद्रव्यके संसर्ग रहित है और शुद्धस्वरूपमें निश्चल चैतन्यपरिणतिरूप होनेके कारण किसी प्रकार ‘ध्यान’ नामके योग्य है। उनकी ऐसी आत्मदशाका निर्जराके निमित्तरूपसे वर्णन किया जाता है क्योंकि उन्हें पूर्वोपार्जित कर्मोंकी शक्ति हीन होती जाती है तथा वे कर्म खिरते जाते है।। १५२।। -------------------------------------------------------------------------

१। केवलीभगवान निर्विकार –परमानन्दस्वरूप स्वात्मोत्पन्न सुखसे तृप्त हैं इसलिये कर्मका विपाक जिसमें
निमित्तभूत होता है ऐसी सांसारिक सुख–दुःखरूप [–हर्षविषादरूप] विक्रिया उन्हेें विरामको प्राप्त हुई
है।
२। शातन = पतला होना; हीन होना; क्षीण होना

३। पतन = नाश; गलन; खिर जाना।