Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 152.

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन

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ततः कर्माभावे स हि भगवान्सर्वज्ञः सर्वदर्शी व्युपरतेन्द्रिय–व्यापाराव्याबाधानन्तसुखश्च नित्यमेवावतिष्ठते। इत्येष भावकर्ममोक्षप्रकारः द्रव्यकर्ममोक्षहेतुः परम–संवरप्रकारश्च।। १५०–१५१।।

दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अप्णदव्वसंजुत्तं।
जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साधुस्स।। १५२।।

दर्शनज्ञानसमग्रं ध्यानं नो अन्यद्रव्यसंयुक्तम्।
जायते निर्जराहेतुः स्वभावसहितस्य साधोः।। १५२।।

----------------------------------------------------------------------------- इसलिये कर्मका अभाव होने पर वह वास्तवमें भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा इन्द्रियव्यापारातीत– अव्याबाध–अनन्तसुखवाला सदैव रहता है।

इस प्रकार यह [जो यहाँ कहा है वह], भावकर्ममोक्षका प्रकार तथा द्रव्यकर्ममोक्षका हेतुभूत परम संवरका प्रकार है ।। १५०–१५१।।

गाथा १५२

अन्वयार्थः– [स्वभावसहितस्य साधोः] स्वभावसहित साधुको [–स्वभावपरिणत केवलीभगवानको] [दर्शनज्ञानसमग्रं] दर्शनज्ञानसे सम्पूर्ण और [नो अन्यद्रव्य– संयुक्तम्] ------------------------------------------------------------------------- १। कूटस्थ=सर्व काल एक रूप रहनेवालाः अचल। [ज्ञानावरणादि घातिकर्मोंका नाश होने पर ज्ञान कहींं सर्वथा

अपरिणामी नहीं हो जाता; परन्तु वह अन्य–अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित नहीं होता–सर्वदा तीनों कालके
समस्त ज्ञेयोंको जानता रहता है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]

२। भावकर्ममोक्ष=भावकर्मका सर्वथा छूट जाना; भावमोक्ष। [ज्ञप्तिक्रियामें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होना वह भावमोक्ष है

अथवा सर्वज्ञ –सर्वदर्शीपनेकी और अनन्तानन्दमयपनेकी प्रगटता वह भावमोक्ष है।]

३। प्रकार=स्वरूप; रीत।


द्रगज्ञानथी परिपूर्ण ने परद्रव्यविरहित ध्यान जे,
ते निर्जरानो हेतु थाय स्वभावपरिणत साधुने। १५२।