कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
ततः कर्माभावे स हि भगवान्सर्वज्ञः सर्वदर्शी व्युपरतेन्द्रिय–व्यापाराव्याबाधानन्तसुखश्च नित्यमेवावतिष्ठते। इत्येष भावकर्ममोक्षप्रकारः द्रव्यकर्ममोक्षहेतुः परम–संवरप्रकारश्च।। १५०–१५१।।
जायते निर्जराहेतुः स्वभावसहितस्य साधोः।। १५२।।
----------------------------------------------------------------------------- इसलिये कर्मका अभाव होने पर वह वास्तवमें भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा इन्द्रियव्यापारातीत– अव्याबाध–अनन्तसुखवाला सदैव रहता है।
इस प्रकार यह [जो यहाँ कहा है वह], २भावकर्ममोक्षका ३प्रकार तथा द्रव्यकर्ममोक्षका हेतुभूत परम संवरका प्रकार है ।। १५०–१५१।।
अन्वयार्थः– [स्वभावसहितस्य साधोः] स्वभावसहित साधुको [–स्वभावपरिणत केवलीभगवानको] [दर्शनज्ञानसमग्रं] दर्शनज्ञानसे सम्पूर्ण और [नो अन्यद्रव्य– संयुक्तम्] ------------------------------------------------------------------------- १। कूटस्थ=सर्व काल एक रूप रहनेवालाः अचल। [ज्ञानावरणादि घातिकर्मोंका नाश होने पर ज्ञान कहींं सर्वथा
समस्त ज्ञेयोंको जानता रहता है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]
२। भावकर्ममोक्ष=भावकर्मका सर्वथा छूट जाना; भावमोक्ष। [ज्ञप्तिक्रियामें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होना वह भावमोक्ष है
३। प्रकार=स्वरूप; रीत।
द्रगज्ञानथी परिपूर्ण ने परद्रव्यविरहित ध्यान जे,
ते निर्जरानो हेतु थाय स्वभावपरिणत साधुने। १५२।