आस्रवहेतुर्हि जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावः। तदभावो भवति ज्ञानिनः। तदभावे
दर्शित्वमव्याबाधमिन्द्रियव्यापारातीतमनन्तसुखत्वञ्चेति। स एष जीवन्मुक्तिनामा भावमोक्षः। कथमिति
चेत्। भावः खल्वत्र विवक्षितः कर्मावृत्तचैतन्यस्य क्रमप्रवर्तमानज्ञप्तिक्रियारूपः। स खलु
संसारिणोऽनादिमोहनीयकर्मोदयानुवृत्तिवशादशुद्धो द्रव्यकर्मास्रवहेतुः। स तु ज्ञानिनो मोहराग–
द्वेषानुवृत्तिरूपेण प्रहीयते। ततोऽस्य आस्रवभावो निरुध्यते। ततो निरुद्धास्रवभावस्यास्य
मोहक्षयेणात्यन्तनिर्विकारमनादिमुद्रितानन्तचैतन्यवीर्यस्य शुद्धज्ञप्तिक्रियारूपेणान्तर्मुहूर्त– मतिवाह्य
युगपञ्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षेयण कथञ्चिच्
होता है। कर्मका अभाव होने पर सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध, १इन्द्रियव्यापारातीत, अनन्त
सुख होता है। यह
निम्नानुसार प्रकार स्पष्टीकरण हैेः–
मोहनीयकर्मके उदयका अनुसरण करती हुई परिणतिके कारण अशुद्ध है, द्रव्यकर्मास्रवका हेतु है।
परन्तु वह [क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव] ज्ञानीको मोहरागद्वेषवाली परिणतिरूपसे हानिको
प्राप्त होता है इसलिये उसे आस्रवभावको निरोध होता है। इसलिये जिसे आस्रवभावका निरोध हुआ
है ऐसे उस ज्ञानीको मोहके क्षय द्वारा अत्यन्त निर्विकारपना होनेसे, जिसे अनादि कालसे अनन्त
चैतन्य और [अनन्त] वीर्य मुंद गया है ऐसा वह ज्ञानी [क्षीणमोह गुणस्थानमें] शुद्ध ज्ञप्तिक्रियारूपसे
अंतर्मुहूर्त व्यतीत करके युगपद् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होनेसे कथंचित्
२। जीवन्मुक्ति = जीवित रहते हुए मुक्ति; देह होने पर भी मुक्ति।