कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
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अथ मोक्षपदार्थव्याख्यानम्।
हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो।
आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दु णिरोधो।। १५०।।
प्राप्नोतीन्द्रियरहितमव्याबाधं सुखमनन्तम्।। १५१।।
कम्मस्साभावेण य सव्वण्हू सव्वलोगदरिसी य।
पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं सुहमणंतं।। १५१।।
हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः।
आस्रवभावेन विना जायते कर्मणस्तु निरोधः।। १५०।।
कर्मणामभावेन च सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च।
द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमसंवररूपेण भावमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत्।
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अब मोक्षपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १५०–१५१
अन्वयार्थः– [हेत्वभावे] [मोहरागद्वेषरूप] हेतुका अभाव होनेसे [ज्ञानिनः] ज्ञानीको
[नियमात्] नियमसे [आस्रवनिरोधः जायते] आस्रवका निरोध होता है [तु] और [आस्रवभावेन
विना] आस्रवभावके अभावमें [कर्मणः निरोधः जायते] कर्मका निरोध होता है। [च] और [कर्मणाम्
अभावेन] कर्मोंका अभाव होनेसे वह [सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च] सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी होता हुआ
[इन्द्रियरहितम्] इन्द्रियरहित, [अव्याबाधम्] अव्याबाध, [अनन्तम् सुखम् प्राप्नोति] अनन्त सुखको
प्राप्त करता है।
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टीकाः– यह, १द्रव्यकर्ममोक्षके हेतुभूत परम–संवररूपसे भावमोक्षके स्वरूपका कथन है।
१। द्रव्यकर्ममोक्ष=द्रव्यकर्मका सर्वथा छूट जानाः द्रव्यमोक्ष [यहाँ भावमोक्षका स्वरूप द्रव्यमोक्षके निमित्तभूत परम–
संवररूपसे दर्शाया है।]
हेतु–अभावे नियमथी आस्रवनिरोधन ज्ञानीने,
आसरवभाव–अभावमां कर्मो तणुं रोधन बने; १५०।
कर्मो–अभावे सर्वज्ञानी सर्वदर्शी थाय छे,
ने अक्षरहित, अनंत, अव्याबाध सुखने ते लहे। १५१।