विषय
कर्मको जीवभावका कर्तापना होनेके
सम्बन्धमेंं पूर्वपक्ष
५९ वीं गाथामें कहे हुए पूर्वपक्षके
समाधानरूप सिद्धान्त
निश्चनय से जीव को अपने भावों का
कर्तापना और पुद्गलकर्मोंका अकर्तापना
निश्चनयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म
और जीव स्वयं अपने–अपने रूपके
कर्ता हैं– तत्सम्बन्धी निरूपण
यदि कर्म जीवको अनयोन्य अकर्तापना
हो, तो अन्यका दिया हुआ फल अन्य
भोगे, ऐसा प्रसंग आयेगा, –ऐसा दोष
बतलाकर पूर्वपक्षका निरूपण
कर्मयोग्य पुद्गल समस्त लोकमें व्याप्त
हैं; इसलिये जहाँ आत्मा है वहाँ, बिना
लाये ही, वे विद्यमान हैं–––तत्सम्बन्धी
कथन
अन्य द्वारा किये बिना कर्म की उत्त्पत्ति
किस प्रकार होती है उसका कथन
कर्मोंकी विचित्रता अन्य द्वारा नहीं की
जाती ––––तत्सम्बन्धी कथन
निश्चयसे जीव और कर्मको निज–निज
रूपका ही कर्तापना होने पर भी,
व्यवहारसे जीवको कर्म द्वारा दिये गये
फल का उपभोग विरोधको प्राप्त नहीं
होता––– तत्सम्बन्धी कथन
कर्तृत्व और भोक्तृत्वकी व्याख्यान का
उपसंहार
कर्मसंयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्वगुण
का व्याख्यान