Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२२३
मोक्षमार्गस्वरूपाख्यानमेतत्।
जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्गः। जीवस्वभावो हि ज्ञानदर्शने अनन्यमयत्वात्। अनन्यमयत्वं
च तयोर्विशेषसामान्यचैतन्यस्वभावजीवनिर्वृत्तत्वात्। अथ तयोर्जीवस्वरूपभूतयो–
र्ज्ञानदर्शनयोर्यन्नियतमवस्थितमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपवृत्तिमयमस्तित्वं रागादिपरिणत्यभावादनिन्दितं
तच्चरितं; तदेव मोक्षमार्ग इति। द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं– स्वचरितं परचरितं च;
स्वसमयपरसमयावित्यर्थः। तत्र स्वभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरितं, परभावावस्थितास्ति–
त्वस्वरूपं परचरितम्। तत्र यत्स्व–
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गाथा १५४
अन्वयार्थः– [जीवस्वभावं] जीवका स्वभाव [ज्ञानम्] ज्ञान और [अप्रतिहत–दर्शनम्]
अप्रतिहत दर्शन हैे– [अनन्यमयम्] जो कि [जीवसे] अनन्यमय है। [तयोः] उन ज्ञानदर्शनमें
[नियतम्] नियत [अस्तिवम्] अस्तित्व– [अनिन्दितं] जो कि अनिंदित है– [चारित्रं च भणितम्]
उसे [जिनेन्द्रोंने] चारित्र कहा है।
टीकाः– यह, मोक्षमार्गके स्वरूपका कथन है।
जीवस्वभावमें नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है। जीवस्वभाव वास्तवमें ज्ञान–दर्शन है क्योंकि वे
[जीवसे] अनन्यमय हैं। ज्ञानदर्शनका [जीवसे] अनन्यमयपना होनेका कारण यह है कि
विशेषचैतन्य और सामान्यचैतन्य जिसका स्वभाव है ऐसे जीवसे वे निष्पन्न हैं [अर्थात् जीव द्वारा
ज्ञानदर्शन रचे गये हैं]। अब जीवके स्वरूपभूत ऐसे उन ज्ञानदर्शनमें नियत–अवस्थित ऐसा जो
उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वृत्तिमय अस्तित्व– जो कि रागादिपरिणामके अभावके कारण अनिंदित है – वह
चारित्र है; वही मोक्षमार्ग है।
संसारीयोंमें चारित्र वास्तवमें दो प्रकारका हैः– [१] स्वचारित्र और [२] परचारित्र;
[१]स्वसमय और [२] परसमय ऐसा अर्थ है। वहाँ, स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप [चारित्र]
वह स्वचारित्र है और परभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप [चारित्र] वह परचारित्र है। उसमेंसे
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१। विशेषचैतन्य वह ज्ञान हैे और सामान्यचैतन्य वह दर्शन है।

२। नियत=अवस्थित; स्थित; स्थिर; द्रढ़रूप स्थित।

३। वृत्ति=वर्तना; होना। [उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वृत्ति वह अस्तित्व है।]