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शुद्धस्वचरितप्रवृत्तिपथप्रतिपादनमेतत्।
यो हि योगीन्द्रः समस्तमोहव्यूहबहिर्भूतत्वात्परद्रव्यस्वभावभावरहितात्मा सन्, स्वद्रव्य– मेकमेवाभिमुख्येनानुवर्तमानः स्वस्वभावभूतं दर्शनज्ञानविकल्पमप्यात्मनोऽविकल्पत्वेन चरति, स खलु स्वकं चरितं चरति। एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्य– -----------------------------------------------------------------------------
जो योगीन्द्र, समस्त मोहव्यूहसे बहिर्भूत होनेके कारण परद्रव्यके स्वभावरूप भावोंसे रहित स्वरूपवाले वर्तते हुए, स्वद्रव्यको एकको ही अभिमुखतासे अनुसरते हुए निजस्वभावभूत दर्शनज्ञानभेदको भी आत्मासे अभेदरूपसे आचरते हैं, वे वास्तवमें स्वचारित्रको आचरते हैं।
मोक्षमार्गका प्ररूपण किया गया। और जो पहले [१०७ वीं गाथामें] दर्शाया गया था वह स्वपरहेतुक ------------------------------------------------------------------------- १। मोहव्यूह=मोहसमूह। [जिन मुनींद्रने समस्त मोहसमूहका नाश किया होनेसे ‘अपना स्वरूप परद्रव्यके
निर्विकल्परूपसे अत्यन्त लीन होकर निजस्वभावभूत दर्शनज्ञानभेदोंको आत्मासे अभेदरूपसे आचरते हैं, वे मुनींद्र
स्वचारित्रका आचरण करनेवाले हैं।]
२। यहाँ निश्चयनयका विषय शुद्धद्रव्य अर्थात् शुद्धपर्यायपरिणत द्रव्य है, अर्थात् अकले द्रव्यकी [–परनिमित्त
३। जिस नयमें साध्य और साधन अभिन्न [अर्थात् एक प्रकारके] हों वह यहाँ निश्चयनय हैे। जैसे कि,
[मोक्षरूप] साध्य और [मोक्षमार्गरूप] साधन एक प्रकारके अर्थात् शुद्धात्मरूप [–शुद्धात्मपर्यायरूप] हैं।
४। जिन पर्यायोंमें स्व तथा पर कारण होते हैं अर्थात् उपादानकारण तथा निमित्तकारण होते हैं वे पर्यायें
अवलम्बन सहित] वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान [नवपदार्थगत श्रद्धान], तत्त्वार्थज्ञान [नवपदार्थगत ज्ञान] और
पंचमहाव्रतादिरूप चारित्र–यह सब स्वपरहेतुक पर्यायें हैं। वे यहा व्यवहारनयके विषयभूत हैं।