Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 159.

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
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चरियं चरदि संग सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा।
दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो।। १५९।।
चरितं चरति स्वकं स यः परद्रव्यात्मभावरहितात्मा।
दर्शनज्ञानविकल्पमविकल्पं चरत्यात्मनः।। १५९।।
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स्वभाव द्वारा नियतरूपसे अर्थात् अवस्थितरूपससे जानता–देखता है, वह जीव वास्तवमें स्वचारित्र
आचरता है; क्योंकि वास्तवमें दृशिज्ञप्तिस्वरूप पुरुषमें [आत्मामें] तन्मात्ररूपसे वर्तना सो स्वचारित्र
है।
भावार्थः– जो जीव शुद्धोपयोगी वर्तता हुआ और जिसकी परिणति परकी ओर नहीं जाती ऐसा
वर्तता हुआ, आत्माको स्वभावभूत ज्ञानदर्शनपरिणाम द्बारा स्थिरतापूर्वक जानता–देखता है, वह जीव
स्वचारित्रका आचरण करनेवाला है; क्योंकि दृशिज्ञप्तिस्वरूप आत्मामें मात्र दृशिज्ञप्तिरूपसे परिणमित
होकर रहना वह स्वचारित्र है।। १५८।।
गाथा १५९
अन्वयार्थः– [यः] जो [परद्रव्यात्मभावरहितात्मा] परद्रव्यात्मक भावोंसे रहित स्वरूपवाला
वर्तता हुआ, [दर्शनज्ञानविकल्पम्] [निजस्वभावभूत] दर्शनज्ञानरूप भेदको [आत्मनः अविकल्पं]
आत्मासे अभेरूप [चरति] आचरता है, [सः] वह [स्वकं चरितं चरति] स्वचारित्रको आचरता है।
टीकाः– यह, शुद्ध स्वचारित्रप्रवृत्तिके मार्गका कथन है।
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१। दृशि= दर्शन क्रिया; सामान्य अवलोकन।
ते छे स्वचरितप्रवृत्त, जे परद्रव्यथी विरहितपणे
निज ज्ञानदर्शनभेदने जीवथी अभिन्न ज आचरे। १५९।