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स्वचरितप्रवृत्तस्वरूपाख्यानमेतत्। यः खलु निरुपरागोपयोगत्वात्सर्वसङ्गमुक्तः परद्रव्यव्यावृत्तोपयोगत्वादनन्यमनाः आत्मानं स्वभावेन ज्ञानदर्शनरूपेण जानाति पश्यति नियतमवस्थितत्वेन, स खलु स्वकं चरितं चरति जीवः। यतो हि द्रशिज्ञप्तिस्वरूपे पुरुषे तन्मात्रत्वेन वर्तनं स्वचरितमिति।। १५८।। -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [यः] जो [सर्वसङ्गमुक्तः] सर्वसंगमुक्त और [अनन्यमनाः] अनन्यमनवाला वर्तता हुआ [आत्मानं] आत्माको [स्वभावेन] [ज्ञानदर्शनरूप] स्वभाव द्वारा [नियतं] नियतरूपसे [– स्थिरतापूर्वक] [जानाति पश्यति] जानता–देखता है, [सः जीवः] वह जीव [स्वकचरितं] स्वचारित्र [चरित] आचरता है।
टीकाः– यह, स्वचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेके स्वरूपका कथन है।
परद्रव्यसे व्यावृत्त उपयोगवाला होनेके कारण अनन्यमनवाला वर्तता हुआ, आत्माको ज्ञानदर्शनरूप ------------------------------------------------------------------------- १। निरुपराग=उपराग रहित; निर्मळ; अविकारी; शुद्ध [निरुपराग उपयोगवाला जीव समस्त बाह्य–अभ्यंतर संगसे शून्य है तथापि निःसंग परमात्माकी भावना द्वारा उत्पन्न सुन्दर आनन्दस्यन्दी परमानन्दस्वरूप सुखसुधारसके आस्वादसे, पूर्ण–कलशकी भाँति, सर्व आत्मप्रदेशमें भरपूर होता है।] २। आवृत्त=विमुख हुआ; पृथक हुआ; निवृत्त हुआ ; निवृत्त; भिन्न। ३। अनन्यमनवाला=जिसकी परिणति अन्य प्रति नहीं जाती ऐसा। [मन=चित्त; परिणति; भाव]
सौ–संगमुक्त अनन्यचित्त स्वभावथी निज आत्मने