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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जो सव्वसंगमुक्को णण्णमणो अप्पणं सहावेण।
जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो।। १५८।।
यः सर्वसङ्गमुक्तः अनन्यमनाः आत्मानं स्वभावेन।
जानाति पश्यति नियतं सः स्वकचरितं चरित जीवः।। १५८।।
स्वचरितप्रवृत्तस्वरूपाख्यानमेतत्।
यः खलु निरुपरागोपयोगत्वात्सर्वसङ्गमुक्तः परद्रव्यव्यावृत्तोपयोगत्वादनन्यमनाः आत्मानं
स्वभावेन ज्ञानदर्शनरूपेण जानाति पश्यति नियतमवस्थितत्वेन, स खलु स्वकं चरितं चरति जीवः।
यतो हि द्रशिज्ञप्तिस्वरूपे पुरुषे तन्मात्रत्वेन वर्तनं स्वचरितमिति।। १५८।।
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गाथा १५८
अन्वयार्थः– [यः] जो [सर्वसङ्गमुक्तः] सर्वसंगमुक्त और [अनन्यमनाः] अनन्यमनवाला वर्तता
हुआ [आत्मानं] आत्माको [स्वभावेन] [ज्ञानदर्शनरूप] स्वभाव द्वारा [नियतं] नियतरूपसे [–
स्थिरतापूर्वक] [जानाति पश्यति] जानता–देखता है, [सः जीवः] वह जीव [स्वकचरितं]
स्वचारित्र [चरित] आचरता है।
टीकाः– यह, स्वचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेके स्वरूपका कथन है।
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२। आवृत्त=विमुख हुआ; पृथक हुआ; निवृत्त हुआ ; निवृत्त; भिन्न।
जो [जीव] वास्तवमें निरुपराग उपयोगवाला होनेके कारण सर्वसंगमुक्त वर्तता हुआ,
परद्रव्यसे व्यावृत्त उपयोगवाला होनेके कारण अनन्यमनवाला वर्तता हुआ, आत्माको ज्ञानदर्शनरूप
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१। निरुपराग=उपराग रहित; निर्मळ; अविकारी; शुद्ध [निरुपराग उपयोगवाला जीव समस्त बाह्य–अभ्यंतर संगसे
शून्य है तथापि निःसंग परमात्माकी भावना द्वारा उत्पन्न सुन्दर आनन्दस्यन्दी परमानन्दस्वरूप सुखसुधारसके
आस्वादसे, पूर्ण–कलशकी भाँति, सर्व आत्मप्रदेशमें भरपूर होता है।]
३। अनन्यमनवाला=जिसकी परिणति अन्य प्रति नहीं जाती ऐसा। [मन=चित्त; परिणति; भाव]
सौ–संगमुक्त अनन्यचित्त स्वभावथी निज आत्मने
जाणे अने देखे नियत रही, ते स्वचरितप्रवृत्त छे। १५८।