Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 157.

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२२७
आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोध भावेण।
सो तेण परचरित्तो हवदि त्ति जिणा परुवेंति।। १५७।।
आस्रवति येन पुण्यं पापं वात्मनोऽथ भावेन।
स तेन परचरित्रः भवतीति जिनाः प्ररूपयन्ति।। १५्र७।।
परचरितप्रवृत्तेर्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिषेधनमेतत्।
इह किल शुभोपरक्तो भावः पुण्यास्रवः, अशुभोपरक्तः पापास्रव इति। तत्र पुण्यं पापं वा येन
भावेनास्रवति यस्य जीवस्य यदि स भावो भवति स जीवस्तदा तेन परचरित इति प्ररुप्यते। ततः
परचरितप्रवृत्तिर्बन्धमार्ग एव, न मोक्षमार्ग इति।। १५७।।
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गाथा १५७
अन्वयार्थः– [येन भावेन] जिस भावसे [आत्मनः] आत्माको [पुण्यं पापं वा] पुण्य अथवा पाप
[अथ आस्रवति] आस्रवित होते हैं, [तेन] उस भाव द्वारा [सः] वह [जीव] [परचरित्रः भवति]
परचारित्र है–[इति] ऐसा [जिनाः] जिन [प्ररूपयन्ति] प्ररूपित करते हैं।
टीकाः– यहाँ, परचारित्रप्रवृति बंधहेतुभूत होनेसे उसे मोक्षमार्गपनेका निषेध किया गया है
[अर्थात् परचारित्रमें प्रवर्तन बंधका हेतु होनेसे वह मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा इस गाथामें दर्शाया है]।
यहाँ वास्तवमें शुभोपरक्त भाव [–शुभरूप विकारी भाव] वह पुण्यास्रव है और अशुभोपरक्त
भाव [–अशुभरूप विकारी भाव] पापास्रव है। वहाँ, पुण्य अथवा पाप जिस भावसे आस्रवित होते हैं,
वह भाव जब जिस जीवको हो तब वह जीव उस भाव द्वारा परचारित्र है– ऐसा [जिनेंद्रों द्वारा]
प्ररूपित किया जाता है। इसलिये [ऐसा निश्चित होता है कि] परचारित्रमें प्रवृत्ति सो बंधमार्ग ही
है, मोक्षमार्ग नहीं है।। १५७।।
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रे! पुण्य अथवा पाप जीवने आस्रवे जे भावथी,
तेना वडे ते ‘परचरित’ निर्दिष्ट छे जिनदेवथी। १५७।