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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जो परदव्वम्हि सुहं असुहं रागेण कुणदि जदि भावं।
सो सगचरित्तभट्ठो
परचरियचरो हवदि जीवो।। १५६।।
यः परद्रव्ये शुभमशुभं रागेण करोति यदि भावम्।
स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरितचरो भवति जीवः।। १५६।।
परचरितप्रवृत्तस्वरूपाख्यानमेतत्।
यो हि मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद्रज्यमानोपयोगः सन् परद्रव्ये शुभमशुभं वा भावमादधाति, स
स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरित्रचर इत्युपगीयते; यतो हि स्वद्रव्ये शुद्धोपयोगवृत्तिः स्वचरितं, परद्रव्ये
सोपरागोपयोगवृत्तिः परचरितमिति।। १५६।।
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गाथा १५६
अन्वयार्थः– [यः] जो [रागेण] रागसे [–रंजित अर्थात् मलिन उपयोगसे] [परद्रव्ये]
परद्रव्यमें [शुभम् अशुभम् भावम्] शुभ या अशुभ भाव [यदि करोति] करता है, [सः जीवः] वह
जीव [स्वकचरित्रभ्रष्टः] स्वचारित्रभ्रष्ट ऐसा [परचरितचरः भवति] परचारित्रका आचरण करनेवाला
है।
टीकाः– यह, परचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेके स्वरूपका कथन है।
जो [जीव] वास्तवमें मोहनीयके उदयका अनुसरण करनेवालीे परिणतिके वश [अर्थात्
मोहनीयके उदयका अनुसरण करके परिणमित होनेके कारण ] रंजित–उपयोगवाला
[उपरक्तउपयोगवाला] वर्तता हुआ, परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है, वह [जीव]
स्वचारित्रसे भ्रष्ट ऐसा परचारित्रका आचरण करनेवाला कहा जाता है; क्योंकि वास्तवमें स्वद्रव्यमें
ंशुद्ध–उपयोगरूप परिणति वह स्वचारित्र है और परद्रव्यमें सोपराग–उपयोगरूप परिणति वह
परचारित्र है।। १५६।।
१
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१। सोपराग=उपरागयुक्त; उपरक्त; मलिन; विकारी; अशुद्ध [उपयोगमें होनेवाला, कर्मोदयरूप उपाधिके अनुरूप
विकार (अर्थात् कर्मोदयरूप उपाधि जिसमें निमित्तभूत होती है ऐसी औपाधिक विकृति) वह उपराग है।]
जे रागथी परद्रव्यमां करतो शुभाशुभ भावने,
ते स्वकचरित्रथी भ्रष्ट परचारित्र आचरनार छे। १५६।