च्छित्तिर्ज्ञानम्, आचारादिसूत्रप्रपञ्चितविचित्रयतिवृत्तसमस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या–इत्येषः
स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्गः कार्त–
स्वरपाषाणार्पितदीप्तजातवेदोवत्समाहितान्तरङ्गस्य प्रतिपदमुपरितनशुद्धभूमिकासु परमरम्यासु
विश्रान्तिमभिन्नां निष्पादयन्, जात्यकार्तस्वरस्येव शुद्धजीवस्य कथंचिद्भिन्नसाध्यसाधनभावाभावा–
त्स्वयं शुद्धस्वभावेन विपरिणममानस्यापि, निश्चयमोक्षमार्गस्य साधनभावमापद्यत इति।। १६०।।
स्वभाव है ऐसा, ‘श्रद्धान’ नामका भावविशेष सो सम्यक्त्व; तत्त्वार्थश्रद्धानके सद्भावमें अंगपूर्वगत
पदार्थोंंका अवबोधन [–जानना] सो ज्ञान; आचारादि सूत्रों द्वारा कहे गए अनेकविध मुनि–आचारोंके
समस्त समुदायरूप तपमें चेष्टा [–प्रवर्तन] सो चारित्र; – ऐसा यह, स्वपरहेतुक पर्यायके आश्रित,
भिन्नसाध्यसाधनभाववाले व्यवहारनयके आश्रयसे [–व्यवहारनयकी अपेक्षासे] अनुसरण किया
जानेवाला मोक्षमार्ग, सुवर्णपाषाणको लगाई जानेवाली प्रदीप्त अग्निकी भाँति समाहित अंतरंगवाले
जीवको [अर्थात्] जिसका अंतरंग एकाग्र–समाधिप्राप्त है ऐसे जीवको] पद–पद पर परम रम्य
ऐसी उपरकी शुद्ध भूमिकाओंमें अभिन्न विश्रांति [–अभेदरूप स्थिरता] उत्पन्न करता हुआ – यद्यपि
उत्तम सुवर्णकी भाँति शुद्ध जीव कथंचित् भिन्नसाध्यसाधनभावके अभावके कारण स्वयं [अपने आप]
शुद्ध स्वभावसे परिणमित होता है तथापि–निश्चयमोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है।
व्यवहारमोक्षमार्गके स्वरूपका निम्नानुसार वर्णन किया हैः– ‘वीतरागसर्वज्ञप्रणीत जीवादिपदार्थो सम्बन्धी सम्यक्
श्रद्धान तथा ज्ञान दोनों, गृहस्थको और तपोधनको समान होते हैं; चारित्र, तपोधनोंको आचारादि चरणग्रंथोंमें
विहित किये हुए मार्गानुसार प्रमत्त–अप्रमत्त गुणस्थानयोग्य पंचमहाव्रत–पंचसमिति–त्रिगुप्ति–षडावश्यकादिरूप
होता है और गृहस्थोंको उपासकाध्ययनग्रंथमें विहित किये हुए मार्गके अनुसार पंचमगुणस्थानयोग्य दान–शील–
पूवजा–उपवासादिरूप अथवा दार्शनिक–व्रतिकादि ग्यारह स्थानरूप [ग्यारह प्रतिमारूप] होता है; इस प्रकार
व्यवहारमोक्षमार्गका लक्षण है।