२३४
ण कुणदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।। १६१।।
न करोति किंचिदप्यन्यन्न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति।। १६१।।
व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम्। ----------------------------------------------------------------------------- व्यवहारसाधन बनता हुआ, यद्यपि निर्विकल्पशुद्धभावपरिणत जीवको परमार्थसे तो उत्तम सुवर्णकी भाँति अभिन्नसाध्यसाधनभावके कारण स्वयमेव शुद्धभावरूप परिणमन होता है तथापि, व्यवहारनयसे निश्चयमोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है।
[अज्ञानी द्रव्यलिंगी मुनिका अंतरंग लेशमात्र भी समाहित नहीं होनेसे अर्थात् उसे[द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपके अज्ञानके कारण] शुद्धिका अंश भी परिणमित नहीं होनेसे उसे व्यवहारमोक्षमार्ग भी नहीं है।।] १६०।।
अन्वयार्थः– [यः आत्मा] जो आत्मा [तैः त्रिभिः खलु समाहितः] इन तीन द्वारा वास्तवमें समाहित होता हुआ [अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र द्वारा वास्तवमें एकाग्र–अभेद होता हुआ] [अन्यत् किंचित् अपि] अन्य कुछ भी [न करोति न मुञ्चति] करता नहीं है या छोड़ता नहीं है, [सः] वह [निश्चयनयेन] निश्चयनयसे [मोक्षमार्गः इति भणितः] ‘मोक्षमार्ग’ कहा गया है। टीकाः– व्यवहारमोक्षमार्गके साध्यरूपसे, निश्चयमोक्षमार्गका यह कथन है। -------------------------------------------------------------------------
छोडे–ग्रहे नहि अन्य कंईपण, निश्चये शिवमार्ग छे। १६१।