गतार्थाज्ञानातपश्चेष्टानां धर्मादितत्त्वार्थश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थज्ञानतपश्चेष्टानाञ्च त्यागोपादानाय प्रारब्ध–
विविक्तभावव्यापारः, कुतश्चिदुपादेयत्यागे त्याज्योपादाने च पुनः प्रवर्तितप्रतिविधानाभिप्रायो,
यस्मिन्यावति काले विशिष्टभावनासौष्ठववशात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः स्वभावभूतैः सममङ्गाङ्गिभाव–
परिणत्या
अश्रद्धानके, अंगपूर्वगत पदार्थोंसम्बन्धी अज्ञानके और अतपमें चेष्टाके त्याग हेतुसे तथा धर्मादिसम्बन्धी
तत्त्वार्थ–श्रद्धानके, अंगपूर्वगत पदार्थोंसम्बन्धी ज्ञानके और तपमें चेष्टाके ग्रहण हेतुसे [–तीनोंके त्याग
हेतु तथा तीनोंके ग्रहण हेतुसे] विविक्त भावरूप व्यापार करता हुआ, और किसी कारणसे ग्राह्यका
त्याग हो जानेपर और त्याज्यका ग्रहण हो जानेपर उसके प्रतिविधानका अभिप्राय करता हुआ, जिस
काल और जितने काल तक विशिष्ट भावनासौष्ठवके कारण स्वभावभूत सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रके
साथ अंग–अंगीभावसे परिणति द्वारा
[सविकल्प] जीवको निःशंकता–निःकांक्षा–निर्विचिकित्सादि भावरूप, स्वाध्याय–विनयादि भावरूप और
निरतिचार व्रतादि भावरूप व्यापार भूमिकानुसार होते हैं तथा किसी कारण उपादेय भावोंका [–व्यवहारसे
ग्राह्य भावोंका] त्याग हो जाने पर और त्याज्य भावोंका उपादान अर्थात् ग्रहण हो जाने पर उसके
प्रतिकाररूपसे प्रायश्चित्तादि विधान भी होता है।]