तस्मिन् तावति काले अयमेवात्मा जीवस्वभावनियतचरितत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते। अतो
निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न।। १६१।।
विराम प्राप्त होनेसे [अर्थात् भेदभावरूप–खंडभावरूप व्यापार रुक जानेसे] सुनिष्कम्परूपसे रहता है,
उस काल और उतने काल तक यही आत्मा जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप होनेके कारण निश्चयसे
‘मोक्षमार्ग’ कहलाता है। इसलिये, निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य–साधनपना अत्यन्त
घटता है।
जीव कथंचित् [–किसी प्रकार, निज उद्यमसे] अपने संवेदनमें आनेवाली अविद्याकी वासनाके विलय
द्वारा प्राप्त होता हुआ, जब गुणस्थानरूप सोपानके क्रमानुसार निजशुद्धात्मद्रव्यकी भावनासे उत्पन्न
नित्यानन्दलक्षणवाले सुखामृतके रसास्वादकी तृप्तिरूप परम कलाके अनुभवके कारण निजशुद्धात्माश्रित
निश्चयदर्शनज्ञानचारित्ररूपसे अभेदरूप परिणमित होता है, तब निश्चयनयसे भिन्न साध्य–साधनके
अभावके कारण यह आत्मा ही मोक्षमार्ग है। इसलिये ऐसा सिद्ध हुआ कि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणकी
भाँति निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य–साधकपना [व्यवहारनयसे] अत्यन्त घटित होता
है।। १६१।।
२। यहाँ यह ध्यानमें रखनेयोग्य है कि जीव व्यवहारमोक्षमार्गको भी अनादि अविद्याका नाश करके ही प्राप्त कर
शुद्धात्मस्वरूपका भान करनेसे पूर्व तो] व्यवहारमोक्षमार्ग भी नहीं होता।
‘छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुभ विकल्पोंको नहीं किन्तु छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुद्धिके अंशकोे और
सातवें गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्गको वास्तवमें साधन–साध्यपना है।’ छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुद्धिका
अंश बढ़कर जब और जितने काल तक उग्र शुद्धिके कारण शुभ विकल्पोंका अभाव वर्तता है तब और उतने
काल तक सातवें गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्ग होता है।