Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 162.

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
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जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं।
सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि।। १६२।।
यश्चरति जानाति पश्यति आत्मानमात्मनानन्यमयम्।
स चारित्रं ज्ञानं दर्शनमिति निश्चितो भवति।। १६२।।
आत्मनश्चारित्रज्ञानदर्शनत्वद्योतनमेतत्।
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अन्वयार्थः– [यः] जो [आत्मा] [अनन्यमयम् आत्मानम्] अनन्यमय आत्माको [आत्मना]
आत्मासे [चरति] आचरता है, [जानाति] जानता है, [पश्यति] देखता है, [सः] वह [आत्मा
ही] [चारित्रं] चारित्र है, [ज्ञानं] ज्ञान है, [दर्शनम्] दर्शन है–[इति] ऐसा [निश्चितः भवति]
निश्चित है।
यः खल्वात्मानमात्ममयत्वादनन्यमयमात्मना चरति–स्वभावनियतास्तित्वेनानुवर्तते, आत्मना
जानाति–स्वपरप्रकाशकत्वेन चेतयते, आत्मना पश्यति–याथातथ्येनावलोकयते, स खल्वात्मैव चारित्रं
गाथा १६२
टीकाः– यह, आत्माके चारित्र–ज्ञान–दर्शनपनेका प्रकाशन है [अर्थात् आत्मा ही चारित्र, ज्ञान
और दर्शन है ऐसा यहाँ समझाया है]।
जो [आत्मा] वास्तवमें आत्माको– जो कि आत्ममय होनेसे अनन्यमय है उसे–आत्मासे
आचरता है अर्थात् स्वभावनियत अस्तित्व द्वारा अनुवर्तता है [–स्वभावनियत अस्तित्वरूपसे
परिणमित होकर अनुसरता है], [अनन्यमय आत्माको ही] आत्मासे जानता है अर्थात्
स्वपरप्रकाशकरूपसे चेतता है, [अनन्यमय आत्माको ही] आत्मासे देखता है अर्थात् यथातथरूपसे
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१। स्वभावनियत = स्वभावमें अवस्थित; [ज्ञानदर्शनरूप] स्वभावमें द्रढ़रूपसे स्थित। [‘स्वभावनियत अस्तित्व’की
विशेष स्पष्टताके लिए १४४ वीं गाथाकी टीका देखो।]
जाणे, जुए ने आचरे निज आत्मने आत्मा वडे,
ते जीव दर्शन, ज्ञान ने चारित्र छे निश्चितपणे। १६२।