Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 163.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
ज्ञानं दर्शनमिति कर्तृकर्मकरणानामज्ञानं दर्शनमिति कर्तृकर्मकरणानामभेदान्निश्चितो भवति।
अतश्चारित्रज्ञानदर्शनरूपत्वाज्जीवस्वभावनियतचरितत्वलक्षणं निश्चयमोक्षमार्गत्वमात्मनो
नितरामुपपन्नमिति।। १६२।।
जेण विजाणदि सव्वं पेच्छदि सो तेण सोक्खमणुहवदि।
इदि तं जाणदि भविओ अभवियसत्तो ण सद्दहदि।। १६३।।
सर्वस्यात्मनः संसारिणो मोक्षमार्गार्हत्वनिरासोऽयम्।
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अवलोकता है, वह आत्मा ही वास्तवमें चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है–ऐसा कर्ता–कर्म–करणके
अभेदके कारण निश्चित है। इससे [ऐसा निश्चित हुआ कि] चारित्र–ज्ञान–दर्शनरूप होनेके कारण
आत्माको जीवस्वभावनियत चारित्र जिसका लक्षण है ऐसा निश्चयमोक्षमार्गपना अत्यन्त घटित होता है
[अर्थात् आत्मा ही चारित्र–ज्ञान–दर्शन होनेके कारण आत्मा ही ज्ञानदर्शनरूप जीवस्वभावमें द्रढ़रूपसे
स्थित चारित्र जिसका स्वरूप है ऐसा निश्चयमोक्षमार्ग है]।। १६२।।
गाथा १६३
अन्वयार्थः– [येन] जिससे [आत्मा मुक्त होनेपर] [सर्वं विजानाति] सर्वको जानता है और
[पश्यति] देखता हैे, [तेन] उससे [सः] वह [सौख्यम् अनुभवति] सौख्यका अनुभव करता है; –
[इति तद्] ऐसा [भव्यः जानाति] भव्य जीव जानता है, [अभव्यसत्त्वः न श्रद्धत्ते] अभव्य जीव श्रद्धा
नहीं करता।
टीकाः– यह, सर्व संसारी आत्मा मोक्षमार्गके योग्य होनेका निराकरण [निषेध] है
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१। जब आत्मा आत्माको आत्मासे आचरता है–जानता है–देखता है, तब कर्ता भी आत्मा, कर्म भी आत्मा और
करण भी आत्मा है; इस प्रकार यहाँ कर्ता–कर्म–करणकी अभिन्नता है।
जाणे–जुए छे सर्व तेथी सौख्य–अनुभव मुक्तने;
–आ भावजाणे भव्य जीव, अभव्य नहि श्रद्धा लहे। १६३।