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साधूहि इदं भणिदं तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा।। १६४।।
साधुभिरिदं भणितं तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा।। १६४।।।
दर्शनज्ञानचारित्राणां कथंचिद्बन्धहेतुत्वोपदर्शनेन जीवस्वभावे नियतचरितस्य साक्षान्मोक्ष– हेतुत्वद्योतनमेतत्। अमूनि हि दर्शनज्ञानचारित्राणि कियन्मात्रयापि परसमयप्रवृत्त्या संवलितानि कृशानु–संवलितानीव घृतानि कथञ्चिद्विरुद्धकारणत्वरूढेर्बन्धकारणान्यपि -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [दर्शनज्ञानचारित्राणि] दर्शन–ज्ञान–चारित्र [मोक्षमार्गः] मोक्षमार्ग है [इति] इसलिये [सेवितव्यानि] वे सेवनयोग्य हैं– [इदम् साधुभिः भणितम्] ऐसा साधुओंने कहा है; [तैः तु] परन्तु उनसे [बन्धः वा] बन्ध भी होता है और [मोक्षः वा] मोक्ष भी होता है।
टीकाः– यहाँ, दर्शन–ज्ञान–चारित्रका कथंचित् बन्धहेतुपना दर्शाया है और इस प्रकार जीवस्वभावमें नियत चारित्रका साक्षात् मोक्षहेतुपना प्रकाशित किया है।
मिलित घृतकी भाँति [अर्थात् उष्णतायुक्त घृतकी भाँति], कथंचित् विरुद्ध कार्यके कारणपनेकी व्याप्तिके कारण बन्धकारण भी है। और जब वे ------------------------------------------------------------------------- १। घृत स्वभावसे शीतलताके कारणभूत होनेपर भी, यदि वह किंचित् भी उष्णतासे युक्त हो तो, उससे
किंचित् भी परसमयप्रवृतिसे युक्त हो तो, उनसे [कथंचित्] बन्ध भी होता है।
२। परसमयप्रवृत्तियुक्त दर्शन–ज्ञान–चारित्रमें कथंचित् मोक्षरूप कार्यसे विरुद्ध कार्यका कारणपना [अर्थात् बन्धरूप
दृग, ज्ञान ने चारित्र छे शिवमार्ग तेथी सेववां
–संते कह्युं, पण हेतु छे ए बंधना वा मोक्षना। १६४।