Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 164.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि।
साधूहि इदं भणिदं तेहिं
दु बंधो व मोक्खो वा।। १६४।।
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दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सेवितव्यानि।
साधुभिरिदं भणितं तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा।। १६४।।।
दर्शनज्ञानचारित्राणां कथंचिद्बन्धहेतुत्वोपदर्शनेन जीवस्वभावे नियतचरितस्य साक्षान्मोक्ष–
हेतुत्वद्योतनमेतत्। अमूनि हि दर्शनज्ञानचारित्राणि कियन्मात्रयापि परसमयप्रवृत्त्या संवलितानि
कृशानु–संवलितानीव घृतानि कथञ्चिद्विरुद्धकारणत्वरूढेर्बन्धकारणान्यपि
गाथा १६४
अन्वयार्थः– [दर्शनज्ञानचारित्राणि] दर्शन–ज्ञान–चारित्र [मोक्षमार्गः] मोक्षमार्ग है [इति]
इसलिये [सेवितव्यानि] वे सेवनयोग्य हैं– [इदम् साधुभिः भणितम्] ऐसा साधुओंने कहा है; [तैः
तु] परन्तु उनसे [बन्धः वा] बन्ध भी होता है और [मोक्षः वा] मोक्ष भी होता है।
टीकाः– यहाँ, दर्शन–ज्ञान–चारित्रका कथंचित् बन्धहेतुपना दर्शाया है और इस प्रकार
जीवस्वभावमें नियत चारित्रका साक्षात् मोक्षहेतुपना प्रकाशित किया है।
यह दर्शन–ज्ञान–चारित्र यदि अल्प भी परसमयप्रवृत्तिके साथ मिलित हो तो, अग्निके साथ
मिलित घृतकी भाँति [अर्थात् उष्णतायुक्त घृतकी भाँति], कथंचित् विरुद्ध कार्यके कारणपनेकी
व्याप्तिके कारण बन्धकारण भी है। और जब वे
१। घृत स्वभावसे शीतलताके कारणभूत होनेपर भी, यदि वह किंचित् भी उष्णतासे युक्त हो तो, उससे
[कथंचित्] जलते भी हैं; उसी प्रकार दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वभावसे मोक्षके कारणभूत होने पर भी , यदि वे
किंचित् भी परसमयप्रवृतिसे युक्त हो तो, उनसे [कथंचित्] बन्ध भी होता है।

२। परसमयप्रवृत्तियुक्त दर्शन–ज्ञान–चारित्रमें कथंचित् मोक्षरूप कार्यसे विरुद्ध कार्यका कारणपना [अर्थात् बन्धरूप
कार्यका कारणपना] व्याप्त है।

दृग, ज्ञान ने चारित्र छे शिवमार्ग तेथी सेववां
–संते कह्युं, पण हेतु छे ए बंधना वा मोक्षना। १६४।