कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
भवन्ति। यदा तु समस्तपर–समयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपया स्वसमयप्रवृत्त्या सङ्गच्छंते, तदा निवृत्तकृशानुसंवलनानीव घृतानि विरुद्धकार्यकारणभावाभावात्साक्षान्मोक्षकारणान्येव भवन्ति। ततः स्वसमयप्रवृत्तिनाम्नो जीवस्वभावनियतचरितस्य साक्षान्मोक्षमार्गत्वमुपपन्न–मिति।।१६४।।
भवतीति दुःखमोक्षः परसमयरतो भवति जीवः।। १६५।।
----------------------------------------------------------------------------- [दर्शन–ज्ञान–चारित्र], समस्त परसमयप्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप ऐसी स्वसमयप्रवृत्तिके साथ संयुक्त होते हैं तब, जिसे अग्निके साथका मिलितपना निवृत्त हुआ है ऐसे घृतकी भाँति, विरुद्ध कार्यका कारणभाव निवृत्त हो गया होनेसे साक्षात् मोक्षका कारण ही है। इसलिये ‘स्वसमयप्रवृत्ति’ नामका जो जीवस्वभावमें नियत चारित्र उसे साक्षात् मोक्षमार्गपना घटित होता है ।। १६४।। १
होता है [इति] ऐसा [यदि] यदि [अज्ञानात्] अज्ञानके कारण [ज्ञानी] ज्ञानी [मन्यते] माने, तो वह [परसमयरतः जीवः] परसमयरत जीव [भवति] है। [‘अर्हंतादिके प्रति भक्ति–अनुरागवाली मंदशुद्धिसे भी क्रमशः मोक्ष होता है’ इस प्रकार यदि अज्ञानके कारण [–शुद्धात्मसंवेदनके अभावके कारण, रागांशकेे कारण] ज्ञानीको भी [मंद पुरुषार्थवाला] झुकाव वर्ते, तो तब तक वह भी सूक्ष्म परसमयमें रत है।]
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शास्त्रोमें आनेवाले ऐसे भिन्नभिन्न पद्धतिनके कथनोंको सुलझाते हुए यह सारभूत वास्तविकता ध्यानमें रखनी
चाहिये कि –ज्ञानीको जब शुद्धाशुद्धरूप मिश्रपर्याय वर्तती है तब वह मिश्रपर्याय एकांतसे संवर–निर्जरा–मोक्षके
कारणभूत नहीं होती , अथवा एकांतसे आस्रव–बंधके कारणभूत नहीं होती, परन्तु उस मिश्रपर्यायका शुद्ध
अंश संवर–निर्जरा–मोक्षके कारणभूत होता है और अशुद्ध अंश आस्रव–बंधके कारणभूत होता है।]
१। इस निरूपणके साथ तुलना करनेके लिये श्री प्रवचनसारकी ११ वीं गाथा और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका
२। मानना = झुकाव करना; आशय रखना; आशा रखना; इच्छा करना; अभिप्राय करना।