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सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतत्।
अर्हदादिषु भगवत्सु सिद्धिसाधनीभूतेषु भक्तिभावानुरञ्जिता चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसंप्रयोगः। अथ खल्वज्ञानलवावेशाद्यदि यावत् ज्ञानवानपि ततः शुद्धसंप्रयोगान्मोक्षो भवती– त्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि रागलवसद्भावात्परसमयरत इत्युपगीयते। अथ न किं पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरङ्गवृत्तिरितरो जन इति।। १६५।। -----------------------------------------------------------------------------
सिद्धिके साधनभूत ऐसे अर्हंतादि भगवन्तोंके प्रति भक्तिभावसे अनुरंजित चित्तवृत्ति वह यहाँ ‘शुद्धसम्प्रयोग’ है। अब, २अज्ञानलवके आवेशसे यदि ज्ञानवान भी ‘उस शुद्धसम्प्रयोगसे मोक्ष होता है ’ ऐसे अभिप्राय द्वारा खेद प्राप्त करता हुआ उसमें [शुद्धसम्प्रयोगमें] प्रवर्ते, तो तब तक वह भी ३रागलवके सद्भावके कारण ४‘परसमयरत’ कहलाता है। तो फिर निरंकुश रागरूप क्लेशसे कलंकित ऐसी अंतरंग वृत्तिवाला इतर जन क्या परसमयरत नहीं कहलाएगा? [अवश्य कहलाएगा ही]
------------------------------------------------------------------------- १। अनुरंजित = अनुरक्त; रागवाली; सराग। २। अज्ञानलव = किन्चित् अज्ञान; अल्प अज्ञान। ३। रागलव = किन्चित् राग; अल्प राग। ४। परसमयरत = परसमयमें रत; परसमयस्थित; परसमयकी ओर झुकाववाला; परसमयमें आसक्त। ५। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें इस प्रकार विवरण हैः–
पंचपरमेष्ठीके प्रति गुणस्तवनादि भक्ति करता है, तब वह सूक्ष्म परसमयरूपसे परिणत वर्तता हुआ सराग
सम्यग्द्रष्टि हैे; और यदि वह पुरुष शुद्धात्मभावनामें समर्थ होने पर भी उसे [शुद्धात्मभावनाको] छोड़कर
‘शुभोपयोगसे ही मोक्ष होता है ऐसा एकान्त माने, तो वह स्थूल परसमयरूप परिणाम द्वारा अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि
होता है।